कृष्ण द्वारा दावाग्नि पान

श्रीकृष्ण द्वारा दावाग्नि पान

एक समय गर्मी के दिनों में सखाओं के साथ श्रीकृष्ण गायों को यमुना में जलपान कराकर उन्हें चरने के लिए छोड़ दिया तथा वे मण्डलीबद्ध होकर भोजन क्रीड़ा-कौतुक में इतने मग्न हो गये कि उन्हें यह पता नहीं चला कि गायें उन्हें छोड़कर बहुत दूर निकल गई हैं। चारों ओर सूखे हुए मुञ्जावन, जिसमें हाथी भी मार्ग न पा सके, जेठ की चिलचिलाती हुई धूप, नीचे तप्त बालुका, दूर तक कहीं भी छाया नहीं, गायें उस वीहड़ मुञ्जवन से निकलने का मार्ग भूल गई, प्यास के मारे उनकी छाती फटने लगी। इधर सखा लोग भी कृष्ण-बलदेव को सूचित किये बिना ही गायों को खोजते हुए उसी मुञ्जवन में पहुँचे। इनकी भी गायों जैसी विकट अवस्था हो गई इतने में दुष्ट कंस के अनुचरों ने मुञ्जवन में आग लगा दी। आग हवा के साथ क्षणभर में चारों ओर फैल गई। आग की लपलपाती हुई लपटों ने गायों एवं ग्वालबालों को घेर लिया। बचने का और कोई उपाय न देखकर वे कृष्ण को पुकारने लगे।

श्रीकृष्ण ने वहाँ पहुँचकर सखाओं को आँख बन्द करने को कहा। श्रीकृष्ण ने पलभर में उस दावाग्नि का पान कर लिया। सखाओं ने आँख खोलते ही देखा कि सभी भाण्डीरवट की सुशीतल छाया में कृष्ण-बलदेव के साथ पूर्ववत भोजन क्रीड़ा-कौतुक में मग्न हैं, पास में गौएँ भी आराम से बैठी हुई जुगाली कर रही हैं। दावाग्नि की विपत्ति उन्हें स्वप्न की भाँति प्रतीत हुई। श्रीकृष्ण ने जहाँ दावाग्नि का पान किया था वह मुञ्जाटवी या ईषिकाटवी है, उसका वर्तमान नाम आगियारा है। वह यमुना के उस पार भाण्डीर गाँव में है। जहाँ कृष्ण सखाओं के साथ भोजन क्रीड़ा – कौतुक कर रहे थे, दावाग्नि-पान के पश्चात् जहाँ पुन: सखा लोग भोजन क्रीड़ा-कौतुक करने लगे तथा गायों को सुख से जुगाली करते हुए देखा, वह यही लीला-स्थली भाण्डीरवट है। श्रीमद्भागवत में इस लीला का वर्णन है-

तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्बणम्।
पीत्वा मुखेन तान कृच्छाद् योगाधीशो व्यमोचयत्॥

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूद में लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं। उसकी बकरियाँ, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्त में डकराती हुई मुंजाटवी[2]में घुस गयीं। जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके।

गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलने से वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओं के खुर और दाँतो से कटी हुई घास तथा पृथ्वी पर बने हुए खुरों के चिह्नों से उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े। अन्त में उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुंजाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटाने की चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोर से लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गम्भीर वाणी से नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे। गौएँ अपने नाम की ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। साथ ही बड़े जोर की आँधी भी चलकर उस अग्नि के बढ़ने में सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को भस्मसात करने लगी।

जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावनल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले - ‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानल से जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ। श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मों के ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं - अपने सखा ग्वालबालों के ये दीनता से भरे वचन सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो।' भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया।[3] इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए। श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावानल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं।

परीक्षित! सायंकाल होने पर बलराम जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रज की यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे। इधर व्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्द में मग्न हो गयीं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-16
  2. सरकंडों के वन
    1. भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति-सुधा-रस का पान करते हैं। अग्नि के मन में उसी का स्वाद लेने की लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुख में प्रवेश किया।
    2. विषाग्नि, मुंजाग्नि और दावाग्नि - तीनों का पान करके भगवान ने अपनी त्रिताप नाश की शक्ति व्यक्त की।
    3. पहले रात्रि में अग्नि पान किया था, दूसरी बार दिन में। भगवान अपने भक्तजनों का ताप हरने के लिये सदा तत्पर रहते हैं।
    4. पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्ण ने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वे भक्तजनों का हित करते हैं।

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