सत्यजित

सत्यजित का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य महाभारत के आदि पर्व[1] में हुआ है। यह पाञ्चाल के राजा द्रुपद के भाई थे।[2] इनको साथ लेकर द्रुपद ने अर्जुन पर धावा बोला था। अर्जुन से हारकर सत्यजित ने युद्ध भूमि का त्याग कर दिया था।

  • 'महाभारत आदि पर्व' में एक स्थान पर वैशम्पायन जी कहते हैं- "जनमेजय! पाण्‍डवों तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों को अस्त्र-विद्या में निपुण देखकर द्रोणाचार्य ने गुरु-दक्षिणा लेने का समय आया जानकर मन-ही-मन कुछ निश्चय किया। आचार्य ने अपने शिष्‍यों को बुलाकर उन सबसे गुरु-दक्षिणा के लिये इस प्रकार कहा- "शिष्‍यों! पाञ्चालराज द्रुपद को युद्ध में बंदी बनाकर मेरे पास ले आओ। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। यही मेरे लिये सर्वोत्तम गुरु-दक्षिणा होगी।" तब ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर शीघ्रता पूर्वक प्रहार करने वाले वे सब राजकुमार युद्ध के लिये उद्यत होकर, रथों में बैठकर गुरु-दक्षिणा चुकाने के लिये आचार्य द्रोण के साथ ही वहाँ से प्रस्थित हुए।[3]
  • युद्ध में जब सत्यजित ने देखा कि अर्जुन पाञ्चाल नरेश द्रुपद को बंदी बनाने के उद्देश्य से निकट चले आ रहे हैं तो उसने दूसरा अत्‍यन्‍त वेगशाली धनुष लेकर तुरंत ही घोड़े, सारथि एवं रथ सहित अर्जुन को बींध डाला। युद्ध में पाञ्चाल और सत्‍यजित से पीड़ित हो अर्जुन उनके पराक्रम को न सह सके और उनके विनाश के लिये उन्‍होंने शीघ्र ही बाणों की झड़ी लगा दी। सत्‍यजित के घोड़े, ध्‍वजा, धनुष, मुट्ठी तथा पार्श्‍वरक्षक एवं सारथि दोनों को अर्जुन ने क्षत-विक्षत कर दिया। इस प्रकार बार-बार धनुष के छिन्न-भिन्न होने और घोड़ों के मारे जाने पर सत्‍यजित समर भूमि से भाग खड़ा हुआ।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभा. आदि. 137.42-46
  2. पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 508 |
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 137 श्लोक 1-18
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 137 श्लोक 35-54

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