विरोचन भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पुत्र थे। महादानी बलि इन्हीं विरोचन के पुत्र थे। विरोचन परम ब्राह्मण भक्त थे। इन्द्र के साथ ही ब्रह्मलोक में ब्रह्मा के पास ब्रह्मचर्य का पालने करते हुए उन्होंने निवास किया था। ब्रह्मा जी के द्वारा उपदेश किया हुआ तत्त्वज्ञान यद्यपि वे यथार्थ रूप से ग्रहण नहीं कर सके, तथापि धर्म में उनकी श्रद्धा थी और उनकी गुरुभक्ति के कारण महर्षि शुक्राचार्य उन पर बहुत प्रसन्न थे।
धर्मात्मा
विरोचन के दैत्याधिपति होने पर दैत्यों, दानवों तथा असुरों का बल बहुत बढ़ गया था। इन्द्र को कोई रास्ता ही नहीं दीखता था कि कैसे वे दैत्यों की बढ़ती हुई शक्ति को दबाकर रखें। विरोचन ने स्वर्ग पर अधिकार करने की इच्छा नहीं की थी, किन्तु इन्द्र का भय बढ़ता जाता था। इन्द्र देखते थे कि यदि कभी दैत्यों ने आक्रमाण किया तो हम धर्मात्मा विरोचन को हरा नहीं सकते।
इन्द्र का आगमन
देवगुरु बृहस्पति की सलाह से एक दिन वे वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके विरोचन के यहाँ गये। ब्राह्मणों के परम भक्त और उदार शिरोमणि दैत्यराज ने उनका स्वागत किया। उनके चरण धोये और उनका पूजन किया। इन्द्र ने विरोचन के दान और उनकी उदारता की बहुत ही प्रशंसा की। विरोचन ने नम्रतापूर्वक वृद्ध ब्राह्मण से कहा कि आपको जो कुछ मांगना हो, उसे आप संकोच छोड़कर मांग लें। इन्द्र ने बात को अनेक प्रकार से पक्की कराकर तब कहा- "दैत्यराज! मुझे आपकी आयु चाहिये।" बात यह थी कि यदि विरोचन को किसी प्रकार मार भी दिया जाता तो शुक्राचार्य उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से फिर जीवित कर सकते थे।
विरोचन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कहने लगे- "मैं धन्य हूँ। मेरा जन्म लेना सफल हो गया। आज मेरा जीवन एक विप्र ने स्वीकार किया, इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिये और क्या हो सकता है।" अपने हाथ में खड्ग लेकर स्वयं उन्होंने अपना मस्तक काटकर वृद्ध ब्राह्मण बने हुए इन्द्र को दे दिया। इन्द्र उस मस्तक को लेकर भय के कारण शीघ्रता से स्वर्ग चले आये और यह अपूर्व दान करके विरोचन तो भगवान के नित्य धाम में ही पहुँच गये। भगवान ने उन्हें अपने निज जनों में ले लिया।
ननु स्वार्थपरो लोके न वेद परसंकटम्।
यदि वेद न याचेत नेति नाह यदीश्वर: ।।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत महापुराण 6 | 10 | 6
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज