पराशर महर्षि वसिष्ठ के पौत्र थे। वे गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार थे।
- बड़े होने पर जब पराशर ऋषि को यह पता चला कि उनके पिता को वन में राक्षसों ने खा लिया था, तब वे क्रुद्ध होकर लोकों का नाश करने के लिए उद्यत हो उठे। वसिष्ठ ने उन्हें शांत किया, किंतु क्रोधाग्नि व्यर्थ नहीं जा सकती थी। अत: समस्त लोकों का पराभव न करके पराशर ने राक्षस सत्र का अनुष्ठान किया।
- राक्षस सत्र में प्रज्वलित अग्नि में राक्षस नष्ट होने लगे। कुछ निर्दोष राक्षसों को बचाने के लिए महर्षि पुलस्त्य आदि ने पराशर से जाकर कहा- "ब्राह्मणों को क्रोध शोभा नहीं देता। शक्ति का नाश भी उसके दिये शाप के फलस्वरूप ही हुआ। हिंसा ब्राह्मण का धर्म नहीं है।"
- समझा-बुझाकर उन्होंने पराशर का यज्ञ समाप्त करवा दिया तथा संचित अग्नि को उत्तर दिशा में हिमालय के आसपास वन में छोड़ दिया। वह आज भी वहाँ पर्व के अवसर पर राक्षसों, वृक्षों तथा पत्थरों को जलाती है।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, आदिपर्व अध्याय 177 से 180 तक
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