दुर्योधन वध

सरोवर से निकलता दुर्योधन

महाभारत का युद्ध अपने अंत की ओर बढ़ रहा था। कौरवों की ओर से अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा दुर्योधन के अतिरिक्त कोई भी अन्य महारथी जीवित नहीं बचा। अब दुर्योधन को युद्ध से पूर्व दिये गए विदुर के उपदेश याद आने लगे। वह युद्ध-क्षेत्र से भागा। युद्ध में सभी कौरव मारे गये थे, केवल दुर्योधन ही अब तक जीवित बचा हुआ था। ऐसे में गांधारी ने अपनी आँखों की पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर को वज्र का करना चाहा। गांधारी ने भगवान शिव से यह वरदान पाया था कि वह जिस किसी को भी अपने नेत्रों की पट्टी खोलकर नग्नावस्था में देखेगी, उसका शरीर वज्र का हो जायेगा। इसीलिए गांधारी ने दुर्योधन से कहा कि वह गंगा में स्नान करने के पश्चात् उसके सामने नग्न अवस्था में उपस्थित हो, किन्तु श्रीकृष्ण की योजना और बहकाने के कारण दुर्योधन का समस्त शरीर वज्र का नहीं हो सका।

जब दुर्योधन गंगा स्नान के बाद नग्न अवस्था में गांधारी के समक्ष उपस्थित होने के लिए आ रहा था, तभी मार्ग में श्रीकृष्ण उसे मिल गये। उन्होंने दुर्योधन से कहा- "इतना बड़ा हो जाने के बाद भी तुम अपनी माता के समक्ष पूर्व नग्न होकर जाओगे। क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती।" इस पर दुर्योधन ने अपनी जंघा पर पत्ते लपेट लिए और गांधारी के समक्ष उपस्थित हो गया। जब गांधारी ने अपने नेत्रों से पट्टी खोलकर उसे देखा तो उसकी दिव्य दृष्टि जंघा पर नहीं पड़ सकी, जिस कारण दुर्योधन की जंघाएँ वज्र की नहीं हो सकीं। युद्ध के अंत समय में दुर्योधन एक सरोवर में प्रवेश कर गया। उसने कहा कि- "मेरे पक्ष के लोगों से कह देना कि मैं राज्यहीन हो जाने के कारण सरोवर में प्रवेश कर गया हूँ।" वह सरोवर में जाकर छिप गया तथा माया से उसका पानी बांध लिया। तभी कृपाचार्य, अश्वत्थामा तथा कृतवर्मा दुर्योधन को ढूंढ़ते हुए उस सरोवर पर पहुँचे और दुर्योधन को पाण्डवों से युद्ध करने का आदेश देने लगे। उनका कहना था कि इस प्रकार जल में छिपना कायरता है। उसी समय कुछ व्याध मांस के भार से थके पानी पीने के लिए सरोवर पर पहुँचे। संयोगवश दुर्योधन को ढूंढ़ते हुए पाण्डव भी वहाँ आ गए। व्याधों ने कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा तथा दुर्योधन की बातचीत सुन ली थी। उन्होंने धन-वैभव के लालच में पाण्डवों को दुर्योधन के सरोवर में छिपने के स्थान को बता दिया। पाण्डव अपने सैनिकों के साथ सिंहनाद करते हुए उस 'द्वैपायन' नामक सरोवर तक पहुँचे। अश्वत्थामा आदि ने समझा कि वे अपनी विजय की प्रसन्नता के आवेग में घूम रहे हैं, अत: वे दुर्योधन को वहाँ छोड़कर दूर एक बरगद के पेड़ के नीचे जा बैठे तथा भविष्य के विषय में चर्चा करने लगे। बाहर से दुर्योधन दिखलायी नहीं पड़ता था, अत: वे लोग आश्वस्त थे।

पाण्डवों ने वहाँ पहुँचकर देखा कि सरोवर का जल माया से स्तंभित है और उसके अंदर दुर्योधन भी पूर्ण सुरक्षित है। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को भी माया का प्रयोग करने का परामर्श दिया। युधिष्ठिर आदि ने दुर्योधन को कायरता के लिए धिक्कारा तथा युद्ध के लिए ललकारा। दुर्योधन ने उत्तर में कहा कि- "वह भयाक्रांत प्राण-रक्षा के निमित्त वहाँ नहीं है, अपितु कुछ समय विश्राम करना चाहता है तथा उसके पास रथ इत्यादि की व्यवस्था भी नहीं है। अपने बंधु-बांधवों के नाश के उपरांत वह मृगचर्म धारण करने के लिए उत्सुक है। पाण्डव मित्रशून्य धरती पर राज्य करें।" दुर्योधन के मुख से यह कथन सुनकर युधिष्ठिर ने उसे जमकर फटकार लगायी और कहा कि- "तुम्हारी दी धरती भोगने को कोई भी इच्छुक नहीं है। क्षत्रिय किसी का दिया दान नहीं लेते। तुम योद्धा हो तो सामने आकर लड़ो, इस प्रकार छिपना कहाँ की वीरता है।" दुर्योधन स्वभाव से ही क्रोधी था। उसने कहा कि- "वह एक-एक पाण्डव के साथ गदा युद्ध करने के लिए तैयार है। युधिष्ठिर ने उससे कहा- "तुम कवच इत्यादि युद्ध के लिए आवश्यक अवयव ग्रहण कर लो। तुम किसी भी एक पाण्डव से युद्ध करो, यदि जीत जाओंगे तो तुम अपना सारा राज्य ले लेना। श्रीकृष्ण इस बात पर रुष्ट हो गये। वे युधिष्ठिर से बोले- "आप लोगों में से भीम से इतर कोई भी दुर्योधन से गदा-युद्ध करने योग्य नहीं है। आपने दयावश फिर भंयकर भूल की है। द्यूतक्रीड़ा की भाँति ही उसे यह अवसर देना कि वह भीम को छोड़कर किसी और को ललकार ले- कौन-सी बुद्धिमत्ता है?" भीम ने अवसर देखकर दुर्योधन को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों का द्वंद्व युद्ध आरंभ हुआ। तभी तीर्थाटन करते हुए बलराम को नारद मुनि से कुरु-संहार का समाचार मिला, अत: वे भी वहाँ पहुँच गये। भीम और दुर्योधन गदा-युद्ध में जुट गये। दोनों का पलड़ा बराबर था। श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने परस्पर विचार-विमर्श किया कि भीम अधिक बलवान है तथा दुर्योधन अधिक कुशल, अत: धर्मयुद्ध में दुर्योधन को परास्त करना बहुत कठिन है। भीम ने द्युतक्रीड़ा के समय द्रौपदी के अपमान पर यह प्रतिज्ञा की थी कि- "मैं गदा मारकर दुर्योधन की दोनों जांघे तोड़ डालूँगा।" भीम के देखने पर श्रीकृष्ण ने अपनी बायीं जांघ को ठोका। भीम संकेत समझ गए और उन्होंने पैंतरा बदलते हुए दुर्योधन की जांघें गदा के प्रहार से तोड़ डालीं। वह धराशायी हो गया तो भीम ने उसकी गदा ले ली और बायें पैर से उसका सिर कुचल दिया, साथ ही द्यूतक्रीड़ा तथा चीरहरण के लज्जाजनक प्रसंग की याद दुर्योधन को दिलायी।

महाभारत युद्ध के बाद का दृश्य

युधिष्ठिर ने भीम को दुर्योधन पर पद-प्रहार करने से रोका। उन्होंने भीम से कहा कि- "मित्रहीन दुर्योधन अब दया का पात्र है, उपहास का नहीं, जिसके तर्पण के लिए भी कोई शेष नहीं बचा है।" युधिष्ठिर ने दुर्योधन से क्षमा-याचना की और दु:खी होने लगे कि राज्य पाकर विधवा बहुओं-भाभियों को कैसे देख सकेंगे। बलराम ने दुर्योधन को अनीति से पराजित देखा तो क्रोध से लाल-पीले हो उठे तथा बोले- "मेरे शिष्य को अन्याय से गिराना मेरा अपमान है। वे अपना हल उठाकर भीमसेन की ओर दौड़े, किंतु श्रीकृष्ण ने उन्हें बीच में रोककर बतलाया कि किस प्रकार चीरहरण के समय भीम ने उसकी जंघायें तोड़ने की शपथ ली थी। किस प्रकार समय-समय पर कौरवों ने पाण्डवों को छला, किस प्रकार अभिमन्यु को अन्याय से मारा गया; इत्यादि। यह तो प्रतिशोध मात्र था। बलराम संतुष्ट नहीं हुए तथा द्वारका की ओर चल दिये। श्रीकृष्ण की बात सुनकर टांगें कटा हुआ दुर्योधन उचककर धरती पर बैठ गया और बोला- "तुम लोगों ने भीष्म, द्रोण, कर्ण, भूरिश्रवा तथा मुझे अधर्म से मारा है। मैं अपनी मृत्यु से दु:खी नहीं हूँ। मुझे क्षत्रिय धर्म के अनुसार ही मृत्यु प्राप्त हो रही है। मैं स्वर्ग भोग करूंगा और तुम लोग भग्न मनोरथ होकर शोचनीय जीवन बिताते रहोगे। भीम के पद-प्रहार का भी मुझे दुख नहीं, क्योंकि कुछ समय बाद कौए-गृध इस शरीर का उपभोग करेंगे।"

पाण्डव दुर्योधन को उसी स्थिति में छोड़कर चले गये। दुर्योधन तड़पता रहा। तभी संयोग से संजय वहाँ पहुँचे, दुर्योधन ने उनके सम्मुख सब वृत्तांत कह सुनाया, फिर संदेशवाहकों से अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा को बुलवाकर सब कृत्य सुनाया। अश्वत्थामा ने क्रुद्ध होकर पाण्डवों को मार डालने की शपथ ली तथा वहीं पर दुर्योधन ने उन्हें कौरवों के सेनापति-पद पर नियुक्त कर दिया गया। उन तीनों के जाने के उपरांत उस रात वह वहीं तड़पता रहा। तीनों महारथी निकटवर्ती गहन जंगल में छिपकर रात व्यतीत करने के लिए चले गये। घोड़ों को पानी इत्यादि पिलाकर वे विश्राम करने लगे। कृपाचार्य तथा कृतवर्मा को नींद आ गयी, किंत अश्वत्थामा को नींद नहीं आई। वे लोग बरगद के एक बड़े वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। अश्वत्थामा ने देखा कि एक उल्लू ने अचानक आक्रमण करके पेड़ की कोटरों में सोते हुए अनेक कौओं को मार डाला। उसने इसी प्रकार पाण्डवों को भी मारने का निश्चय किया और इसे दैवी संकेत माना। कृपाचार्य और कृतवर्मा, इन दोनों महारथियों को द्वार पर छोड़कर कि कोई जीवित न भाग सके, अश्वत्थामा पाण्डवों के शिविर के भीतर जा घुसा। वहाँ धृष्टद्युम्न, उत्तमोजा, युधामन्यु, शिखंडी, द्रौपदी के पांच पुत्रों तथा अन्य जितने भी लोग शिविर में थे, उन्हें कुचलकर, गला घोंटकर अथवा तलवार से काटकर मार डाला गया। पौ फटने पर शेष दोनों योद्धाओं को साथ लेकर अश्वत्थामा दुर्योधन के पास पहुँचा। दुर्योधन ने रात्रि का मृत्युकांड सुनकर संतोषपूर्वक प्राण त्याग दिये।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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