रोमहर्षण

रोमहर्षण वेदव्यास के परम प्रिय शिष्य थे। ये सूत जाति के थे। महर्षि वेदव्यास बहुत ही उदार विचारों के थे। रोमहर्षण के स्तुति पाठ तथा शास्त्रों-पुराणों में उनकी रुचियों को देखकर व्यास जी ने रोमहर्षण को अपना शिष्य बनाया था। रोमहर्षण ने पुराण विद्या का ऐसा पारायण किया कि उनकी प्रतिभा चमत्कृत हो गयी। जाति से अन्त्यज होते हुए भी व्यास जी की कृपा से पुराणों-शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया और कई ग्रन्थों की रचना की।

पुराण वक्ता

भगवान वेदव्यास ने रोमहर्षण को समस्‍त पुराणों को पढ़ाया और आशीर्वाद दिया कि ‘तुम समस्‍त पुराणों के वक्‍ता बनोगे। इसीलिये रोमहर्षण समस्‍त पुराणों के वक्‍ता माने जाते हैं। ये सदा ऋषियों के आश्रमों में घूमते रहते थे और सबको पुराणों की कथा सुनाया करते थे। नैमिषारण्‍य में अठासी हज़ार ऋषि निवास करते थे। सूत जी उनके यहाँ सदा कथा कहा करते थे। यद्यपि ये सूत जाति के थे, फिर भी पुराणों के वक्‍ता होने के कारण समस्‍त ऋषि इनका आदर करते थे और उच्‍चासन पर बिठाकर इनकी पूजा करते थे। इनकी कथा इतनी अद्भुत होती थी कि आसपास के ऋषिगण जब सुन लेते थे कि अमुक जगह सूत जी आये हैं, तब सभी दौड़-दौड़कर इनके पास आ जाते और विचित्र कथाएं सुनने के लिये इन्‍हें घेरकर चारों ओर बैठ जाते। पहले तो ये सब ऋषियों की पूजा करते, उनका कुशल-प्रश्‍न पूछते और कहते- "ऋषियों! आप कौन-सी कथा मुझसे सुनना चाहते हैं?" इनके प्रश्‍न को सुनकर शौनक या कोई वृद्ध ऋषि किसी तरह का प्रश्‍न देते और कह देते- "रोमहर्षण सूत जी! यदि हमारा यह प्रश्‍न पौराणिक हो और पुराणों में गाया हो, तो इसका उत्‍तर दीजिये।"

ऐसी कौन-सी बात है, जो पुराणों में न हो। पहले तो सूत उनके प्रश्‍न का अभिनन्‍दन करते और फिर कहते- "आपका यह प्रश्‍न पौराणिक ही है। इसके सम्‍बन्‍ध में मैंने अपने गुरु भगवान वेदव्यास से जो कुछ सुना है, उसे आपके सामने कहता हूँ, सावधान होकर सुनिये।" इतना कहकर सूत जी कथा का आरम्‍भ करते और यथावत समस्‍त प्रश्‍नों का उत्‍तर देते हुए कथाएं सुनाते। इस प्रकार ये सदा भगवल्लीला कीर्तन में लगे रहते थे। इनसे बढ़कर भगवान का कीर्तनकार कौन होगा।

मृत्यु

रोमहर्षण की मृत्‍यु भगवान बलदेव के द्वारा हुई। नैमिषारण्‍य में तीर्थयात्रा करते हुए बलदेव जी पहुँचे। ये उस समय व्‍यासासन पर बैठे थे। उन्‍हें देखकर उठे नहीं। इस पर बलराम जी को क्रोध आ गया और उन्‍होंने इनका सिर काट लिया। महर्षि शौनक ने बलराम जी से कहा- "रोमहर्षण का वध करके जहाँ आप ब्रह्महत्या के दोषी हुए, वहीं आपने हम ऋषियों का भी बहुत अहित किया। रोमहर्षण के वध से पुराण विद्या के लोप होने का भय हो गया है। बिना सोचे-विचारे किए गये कार्य का दुष्परिणाम स्वयं अपने के अलावा बहुतों का अहित करता है।"

महर्षि शौनक की व्यथाभरी बात सुनकर बलदेव स्तब्ध रह गये, पर अब क्या कर सकते थे। खेद तथा दु:ख से सिर झुकाकर कहा- "ऋषिवर! निश्चय ही मैं अपराधी हूँ। मुझे नहीं पता था कि आप लोगों ने स्वयं रोमहर्षण को यह सम्मान दिया था। मैं तो यही समझता था कि वह अभिमान से इस आसन पर बैठकर उद्दण्ड हो गया है। अपने अविवेक से मैंने जो कर्म किया है, इसका कर्मफल मैं भोगूँगा, पर पुराण गाथा आगे चले, इसके लिए क्या होगा?" शौनक ने कहा- "रोमहर्षण का पुत्र उग्रश्रवा भी अधिक विद्वान है। हम उसे बुलाकर पुराण-गाथा श्रवण करने का प्रबन्ध करेंगे। इस विद्या का लोप नहीं होने देंगे। श्रुति के माध्यम से हम इसे ग्रहण कर इसकी परम्परा बढ़ाते रहेंगे।"

बलदेव शौनक के चरणों पर गिरकर बोले- "मुनिवर! आप उग्रश्रवा को बुलाकर इस व्यास गद्दी पर बैठाइए। मैं उनके आसनासीन होने पर उनसे अपने अपराध की क्षमा-याचना करूँगा तथा ब्रह्मा-हत्या दोष के निवारण के लिए तीर्थों में घूम-घूमकर प्रायश्चित्त करूँगा।" ऋषि शौनक ने उग्रश्रवा को बुलाकर सारी स्थिति बतायी तथा उसे व्यास गद्दी पर बैठाया। बलदेव ने अपने अपराध की क्षमा माँगी और प्रायश्चित्त के लिए चले गये। उग्रश्रवा ने पुराण सुनाना प्रारम्भ किया। आजकल जो पुराण उपलब्ध हैं, उसमें कई में रोमहर्षण का संवाद मिलता है, कई में उग्रश्रवा का मिलता है। रोमहर्षण के जीवनकाल में ही उग्रश्रवा को ऋषि तथा ब्राह्मण समाज में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उग्रश्रवा ऋषियों की श्रेणी में थे।

इससे विदित होता है कि प्राचीन काल में जाति से अधिक गुण का सम्मान होता था। प्राचीन काल में प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा विद्या अर्जित करने में जाति बाधक नहीं होती थी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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