विश्वामित्र

संक्षिप्त परिचय
विश्वामित्र
विश्वामित्र
अन्य नाम विश्वरथ
वंश-गोत्र कुशिक गोत्रोत्पन्न 'कौशिक'[1]
पिता गाधि
समय-काल रामायण काल
संतान सौ पुत्रों के पिता थे।
विद्या पारंगत धनुर्विद्या
रचनाएँ 'विश्वामित्रकल्प', 'विश्वामित्रसंहिता', 'विश्वामित्रस्मृति'
प्रसिद्ध घटनाएँ वसिष्ठ ऋषि से कामधेनु माँगना, अप्सरा मेनका से प्रेम, त्रिशंकु की स्वर्ग जाने की इच्छा।
यशकीर्ति ऋग्वेद के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं, इन सभी सूक्तों के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही हैं।
अपकीर्ति वसिष्ठ द्वारा कामधेनु न देने पर उनसे युद्ध और फिर पराजय।
संबंधित लेख वसिष्ठ, मेनका, श्रीराम
अन्य जानकारी विश्वामित्र तपस्या के धनी थे। इन्हें गायत्री-माता सिद्ध थीं और इनकी पूर्ण कृपा इन्होंने प्राप्त की थी। नवीन सृष्टि तथा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग आदि भेजने और ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने जैसे असम्भव कार्य विश्वामित्र ने किये।

विश्वामित्र गाधि के पुत्र थे। पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि उन्होंने कई वर्ष तक सफलतापूर्वक राज्य किया था। विश्वामित्र अपने समय के वीर और ख्यातिप्राप्त राजाओं में गिने जाते थे। लम्बे समय तक राज्य करने के बाद वे पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकले। पुरुषार्थ, सच्ची लगन, उद्यम और तप की गरिमा के रूप में महर्षि विश्वामित्र के समान शायद ही कोई हो। इन्होंने अपने पुरुषार्थ से, अपनी तपस्या के बल से क्षत्रियत्व से ब्रह्मत्व प्राप्त किया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बने, देवताओं और ऋषियों के लिये पूज्य बन गये। विश्वामित्र को सप्तर्षियों में अन्यतम स्थान प्राप्त हुआ था। अपनी तपस्या के बल और योग से वे सभी के लिए वन्दनीय भी बन गय थे।

ऋषि वशिष्ठ का आतिथ्य

मिथिला के राजपुरोहित शतानन्द राम से विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। शतानन्द ने श्रीराम से कहा- "हे राम! आपका बड़ा सौभाग्य है कि आपको विश्वामित्र जी गुरु के रूप में प्राप्त हुये हैं। ऋषि विश्वामित्र बड़े ही प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष हैं। ऋषि धर्म ग्रहण करने के पूर्व ये बड़े पराक्रमी और प्रजावत्सल नरेश थे। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। ये सभी शूरवीर, पराक्रमी और धर्मपरायण थे। विश्वामित्र जी उन्हीं गाधि के पुत्र हैं। एक दिन राजा विश्वामित्र अपनी सेना को लेकर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये। उस समय वशिष्ठ ईश्वर भक्ति में लीन होकर यज्ञ कर रहे थे। विश्वामित्र उन्हें प्रणाम करके वहीं बैठ गये। यज्ञ क्रिया से निवृत होकर वशिष्ठ ने विश्वामित्र का खूब आदर सत्कार किया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रह कर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह विचार करके कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा, विश्वामित्र ने नम्रता पूर्वक अपने जाने की अनुमति माँगी, किन्तु वशिष्ठ के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। वशिष्ठ ऋषि ने कामधेनु गौ का आह्वान करके उससे विश्वामित्र तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार के सुख-सुविधा की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके कामधेनु गौ ने सारी व्यवस्था कर दी। वशिष्ठ के आतिथ्य से विश्वामित्र और उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये।[2]

कामधेनु को माँगना

कामधेनु गौ का चमत्कार देखकर राजा विश्वामित्र ने उस गौ को प्राप्त करने के विचार से वशिष्ठ से कहा- "मुनिवर! कामधेनु जैसी गौ वनवासियों के पास नहीं, राजा महाराजाओं के पास शोभा देती हैं। अतः आप इसे मुझे दे दीजिये। इसके बदले में मैं आपको सहस्रों स्वर्ण मुद्रायें दे सकता हूँ।" इस पर वशिष्ठ ऋषि बोले- "राजन! यह गौ मेरा जीवन है और इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता।" वशिष्ठ के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र ने बलात् उस गौ को पकड़ लेने का आदेश दे दिया और उनके सैनिक उस गौ को डण्डे से मार-मार कर हाँकने लगे। कामधेनु गौ ने क्रोधित होकर उन सैनिकों से अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ बोले- "हे कामधेनु! यह राजा मेरा अतिथि है, इसलिये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता और इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रहा हूँ।" उनके इन वचनों को सुन कर कामधेनु ने कहा- "हे ब्रह्मर्षि! एक ब्राह्मण के बल के सामने क्षत्रिय का बल कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेना सहित नष्ट कर दूँगी।" कोई उपाय न देख कर वशिष्ठ ऋषि ने कामधेनु को अनुमति दे दी।

दिव्य शक्ति तथा धनुर्विद्या की प्राप्ति

आज्ञा पाते ही कामधेनु ने योगबल से पह्नव सैनिकों की एक सेना उत्पन्न कर दी। वह सेना विश्वामित्र की सेना के साथ युद्ध करने लगी। विश्वामित्र ने अपने पराक्रम से समस्त पह्नव सेना का विनाश कर डाला। अपनी सेना का नाश होते देखकर कामधेनु ने सहस्रों शक, हूण, बर्वर, यवन और काम्बोज सैनिक उत्पन्न कर दिये। जब विश्वामित्र ने उन सैनिकों का भी वध कर डाला तो कामधेनु ने अत्यंत पराक्रमी मारक शस्त्रास्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया, जिन्होंने शीघ्र ही शत्रु सेना को गाजर-मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ को मारने दौड़े। वशिष्ठ ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया।" अपनी सेना तथा पुत्रों के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वामित्र ने महादेव को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।[2]

वसिष्ठ से पराजय

इस प्रकार सम्पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र प्रतिशोध लेने के लिये वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में पहुँचे। उन्हें ललकार कर विश्वामित्र ने अग्नि बाण चला दिया। अग्नि बाण से समस्त आश्रम में आग लग गई और आश्रमवासी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। वशिष्ठ ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले- "मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तू मुझ पर वार कर। आज मैं तेरे अभिमान को चूर-चूर करके बता दूँगा कि क्षात्र बल से ब्रह्म बल श्रेष्ठ है।" क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक 'आग्नेयास्त्र', 'वरुणास्त्र', 'रुद्रास्त्र', 'ऐन्द्रास्त्र' तथा 'पाशुपतास्त्र' एक साथ छोड़ दिये, जिन्हें वशिष्ठ ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर 'मानव', 'मोहन', 'गान्धर्व', 'जूंभण', 'दारण', 'वज्र', 'ब्रह्मपाश', 'कालपाश', 'वरुणपाश', 'पिनाक', 'दण्ड', 'पैशाच', 'क्रौंच', 'धर्मचक्र', 'कालचक्र', 'विष्णुचक्र', 'वायव्य', 'मंथन', 'कंकाल', 'मूसल', 'विद्याधर', 'कालास्त्र' आदि सभी अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ ने उन सबको नष्ट करके ब्रह्मास्त्र छोड़ने के लिये जब अपना धनुष उठाया तो सब देव-किन्नर आदि भयभीत हो गये, किन्तु वशिष्ठ तो उस समय अत्यन्त क्रुद्ध हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मास्त्र छोड़ ही दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा। सब ऋषि-मुनि उनसे प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आजप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शान्त करें। इस प्रार्थाना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मन्त्रों से उसे शान्त किया।[2]

तपस्या

पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देय क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नी सहित दक्षिण दिशा की और चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। एक हज़ार वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात ब्रह्मा ने प्रकट होकर कहा- "हे राजर्षि, तुमने अपने तप से सब लोक जीत लिये हैं।" ब्रह्मा के मुँह से 'राजर्षि' शब्द सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगा और विश्वामित्र ने सोचा कि उनकी तपस्या में अभी भी कुछ कमी है।[3]

मेनका और विश्वामित्र

तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सरा के माध्यम से विश्वामित्र के जीवन में काम का विघ्न आया। ये सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेम में डूब गये। जब इन्हें होश आया तो इनके मन में पश्चात्ताप का उदय हुआ। ये पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गये। काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित किया।

त्रिशंकु और विश्वामित्र

राजा त्रिशंकु सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे। यह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होने के कारण वसिष्ठ जी ने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया। विश्वामित्र के तप का तेज़ उस समय सर्वाधिक था। त्रिशंकु विश्वामित्र के पास गये। वसिष्ठ ने पुराने बैर को स्मरण करके विश्वामित्र ने उनका यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया। सभी ऋषि इस यज्ञ में आये, किन्तु वसिष्ठ के सौ पुत्र नहीं आये। इस पर क्रोध के वशीभूत होकर विश्वामित्र ने उन्हें मार डाला। अपनी भयंकर भूल का ज्ञान होने पर विश्वामित्र ने पुन: तप किया और क्रोध पर विजय करके ब्रह्मर्षि हुए। सच्ची लगन और सतत उद्योग से सब कुछ सम्भव है, विश्वामित्र ने इसे सिद्ध कर दिया।

महाभारत और पुराणों में विश्वामित्र

महर्षि विश्वामित्र के आविर्भाव का विस्तृत आख्यान पुराणों तथा महाभारत आदि में आया है। भरत वंश की परंपरा राजा अजमीढ़, जह्नु, सिंधुद्वीप, बलाश्व, बल्लभ, कुशिक से होती हुई गाधि तक पहुँची। गाधि दीर्घकाल तक पुत्रहीन रहे तथा अनेक पुण्यकर्म करने के उपरांत उन्हें सत्यवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई। च्यवन के पुत्र भृगुवंशी ऋचीक ने सत्यवती की याचना की तो गाधि ने उसे दरिद्र समझकर शुल्क रूप में उससे एक सहस्र श्वेत वर्ण तथा एक ओर से काले कानों वाले एक सहस्र घोड़े मांगे। ऋचीक ने वरुण देव की कृपा से शुल्क देकर सत्यवती से विवाह कर लिया। कालांतर में पत्नी से प्रसन्न होकर ऋचीक ने वर मांगने को कहा। सत्यवती ने अपनी मां की सलाह से मां के तथा अपने लिए एक-एक पुत्र की कामना की। *ऋचीक ने सत्यवती को दोनों के खाने के लिए एक-एक मन्त्रपूत चरु दिया तथा ऋतुस्नान के उपरांत मां को पीपल के वृक्ष का आलिंगन तथा सत्यवती को गूलर का आलिंगन करने को कहा। मां ने यह सोचकर कि अपने लिए निश्चय ही ऋचीक ने अधिक अच्छे बालक की योजना की होगी, बेटी पर अधिकार जमाकर चारू बदल लिए तथा स्वयं गूलर का और सत्यवती को पीपल का आलिंगन करवाया। गर्भवती सत्यवती को देखकर ऋचीक पर यह भेद खुल गया। उसने कहा-'सत्यवती, मैंने तुम्हारे लिए ब्राह्मण पुत्र तथा मां के लिए क्षत्रियपुत्र की योजना की थी।' सत्यवती यह जानकर बहुत दुखी हुई। उसने ऋचीक से प्रार्थना की कि उसका पौत्र भले ही क्षत्रिय हो जाय, पर पुत्र ब्राह्मण हो। यथासमय सत्यवती की परम्परा में पुत्र रूप में जमदग्नि पैदा हुए और उन्हीं के पुत्र परशुराम हुए। जमदग्नि तथा गाधि नामक विख्यात राजा को विश्वामित्र नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। गाधि ने अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर अपने शरीर का त्याग कर दिया। प्रजा के मन में पहले से ही संशय था कि विश्वामित्र प्रजा की रक्षा कर पायेंगे कि नहीं। कालांतर में स्पष्ट हो गया कि वे गाधि जितने समर्थ राजा नहीं हैं। प्रजा राक्षसों से भयभीत थी, अत: विश्वामित्र अपनी सेना लेकर निकले।

  • वे वसिष्ठ के आश्रम के निकट पहुँचे। वसिष्ठ उनके सैनिकों को अन्याय आदि करते देख उनसे रुष्ट हो गये तथा अपनी गौ नंदिनी से उन्होंने भयानक पुरुषों की सृष्टि करने के लिए कहा। उन भयानक पुरुषों ने राजसैनिकों को मार भगाया। अपनी पराजय देखकर विश्वामित्र ने तप को अधिक प्रबल मानकर तपस्या में अपना मन लगाया। वे ब्रह्माजी के सरोवर से उत्पन्न हुई सरस्वती नदी के तट पर चले गये। वहाँ उन्होंने अर्ष्टिषेण तीर्थ का सेवन कर ब्रह्मा से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। कालांतर में तपस्या करते हुए उनको वसिष्ठ से स्पर्धा तदनंतर बैर हो गया। सरस्वती के पूर्वी तट पर वसिष्ठ तथा पश्चिमी तट पर विश्वामित्र तपस्या में लगे थे। एक दिन उन्होंने सरस्वती को बुलाकर कहा कि वह वसिष्ठ को बहाकर उनके पास ले आये ताकि वे वसिष्ठ का वध कर पायें। सरस्वती दोनों में से किसी का भी अहित करने से शाप की संभावना का अनुभव कर रही थी, अत: उसने वसिष्ठ से जाकर सब कह सुनाया। उन्होंने उसे विश्वामित्र की आज्ञा का पालन करने के लिए कहा। सरस्वती ने पूर्वी तट को तोड़कर बहाया तथा उस तट को वसिष्ठ सहित विश्वामित्र के पास पहुँचा दिया। विश्वामित्र जप और होम कर रहे थे। वे वसिष्ठ को मारने के लिए कोई अस्त्र ढूंढ़ ही रहे थे कि सरस्वती ने पुन: बहाकर उन्हें दूसरे तट पर पहुँचा दिया। वसिष्ठ को फिर से पूर्वी तट पर देख विश्वामित्र सरस्वती से रुष्ट हो गये। उन्होंने शाप दिया कि वहाँ उसका जल रक्तमिश्रित हो जाये। उस स्थल पर सरस्वती का जल रक्त की धारा बन गया तथा उसका पान विभिन्न राक्षस इत्यादि करने लगे। कालांतर में कुछ मुनि तीर्थाटन करते हुए वहाँ पहुँचे। वहाँ रक्त देख तथा सरस्वती से समस्त घटना के विषय में जानकर उन लोगों ने शिव की उपासना की। उनकी कृपा से शापमुक्त होकर सरस्वती पुन: स्वच्छ जल-युक्त हो गयी। जो राक्षस निरंतर प्रवाहित रक्त का पान कर रहे थे, वे अतृप्त और भूखे होने के कारण मुनियों की शरण में गये। उन्होंने अपने पापों को मुक्त कंठ से स्वीकार किया तथा उनसे छुटकारा प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। उन्हें पापमुक्त करने की मुनियों की इच्छा जानकर सरस्वती अपनी ही स्वरूपभूता 'अरुणा' को ले आयी। उसके जल में स्नान करके राक्षस अपने शरीर का त्याग कर स्वर्ग चले गये। अरुणा ब्रह्महत्या का निवारण करने वाली नदी है।
  • त्रेता युग और द्वापर युग की संधि के समय बारह वर्ष तक अनावृष्टि रही। विश्वामित्र भूख से पीड़ित हो अपने परिवार को जनसमुदाय में छोड़कर भक्ष्य-अभक्ष्य ढूंढ़ने निकल पड़े। उन्हें एक चांडाल के घर में कुत्ते की जांघ का मांस दिखायी दिया। वे उसे चुराने की इच्छा से वहीं रह गये। रात्रि के समय यह सोचकर कि सब सो रहे हैं, वे घर में घुसे। चांडाल जगा हुआ था। अत: उसने पूछा, कौन है। परिचय पाकर तथा प्रयोजन जानकर उसने उन्हें इस कुकर्म से विरक्त होने के लिए कहा। यह भी कहा कि मुनि के लिए कुत्ते की जांघ का मांस अभक्ष्य है। विश्वामित्र ने आपत्धर्म मानकर वह मांस वहाँ से ले लिया तथा अपने परिवार के साथ भक्षण करने का विचार किया। मार्ग में उन्हें ध्यान आया कि इसमें से यज्ञादि के द्वारा देवताओं का भाग भी निकाल देना चाहिए। उनके यज्ञ करते-करते ही वर्षा प्रारंभ हो गयी तथा दुर्भिक्ष दूर हो गया। [4]
  • विश्वामित्र ने अपने सातों लड़कों से रुष्ट होकर उन्हें अपने आश्रम से निकाल दिया तथा शाप दिया। वे गर्ग मुनि को गुरु बनाकर रहने लगे। मुनि के पास एक गाय थी। वह हर साल एक बच्चा देती थी। एक दिन उसे जंगल से लाने गये तो सातों ने सबसे छोटे की सलाह से पितरों का आवाहन करके श्राद्ध निमित्त उस गाय को मारकर खा लिया तथा मुनि से यह कह दिया कि सिंह उसे खा गया है। मुनि ने मान लिया। गाय मारते हुए पितरों का आवाहन करने के कारण वे ज्ञान से च्युत नहीं हुए। पाप कर्म के कारण वे मरकर व्याध के घर में पैदा हुए। इसी प्रकार वे क्रमश: हरिण, चकवा-चकवी, हंस हुए, तदनंतर उनमें से चार ब्राह्मण घर में उत्पन्न हुए और जो राजा बनने के लोभी थे, वे राजा ब्रह्मदत्त और उसके दो मन्त्रियों के रूप में जन्मे। गोवध करते हुए भी पितरों का आवाहन करने के कारण वे अपने पूर्वज्ञान को भूले नहीं। राजा ब्रह्मदत्त की पत्नी राजा से काम-संबंध स्थापित नहीं करती थी। उसे सब ज्ञात था और वह राजा को धर्म के मार्ग की ओर अग्रसर करना चाहती थी। संयोग से चार ब्राह्मण भाई तीर्थाटन के लिए उद्यत हुए तो उन्होंने अपने बूढ़े पिता के हाथ राजा और मन्त्रियों को पूर्वजन्म का आख्यान लिख भेजा। राजा ने ब्राह्मण को धन देकर विदा किया तथा अपने पुत्रों को राज्य सौंपकर वह योग की ओर प्रवृत्त हुआ। मन्त्रियों ने भी वही मार्ग अपनाकर मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार विश्वामित्र के सातों पुत्रों की इहलोक से मुक्ति हुई। इसका श्रेय पितरों की भक्ति को दिया गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद(3।26।2-3)।
  2. 2.0 2.1 2.2 विश्वामित्र की कथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 मई, 2013।
  3. बाल्मीकि रामायण, बाल कांड,सर्ग 52 1-23, सर्ग 53, 1-25, सर्ग 54,1-23, सर्ग 55, 1-28, सर्ग 56, 1-24, सर्ग 57 श्लोक 1-9,
  4. महाभारत, शल्यपर्व, 40।13-32।–42, 43। 1-31, शांतिपर्व, 141।–, दानधर्मपर्व, 4।

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