इन्द्रप्रस्थ

इन्द्रप्रस्थ (इन्द्र की नगरी), प्राचीन भारत के पुरातन नगरों में से एक था, जो पांडवों के राज्य हस्तिनापुर की राजधानी थी। आज इस क्षेत्र से तात्पर्य यमुना के किनारे दिल्ली में स्थित कुछ क्षेत्रों से लगाया जाता है। जब युधिष्ठिर, पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता को खाण्डवप्रस्थ[1] दिया गया, तब यह एक बंजर प्रदेश था।

प्राचीन नगर

इन्द्रप्रस्थ नगर द्वारका के समकालीन है। पाण्डवों की गाथा के साथ-साथ इस नगर की गाथा भी अमर है। नगर जंगलों को काट कर बनाये गये थे। इन्द्रप्रस्थ भी इसी कोटि के नगरों में आता था। अपने वैभव एवं समृद्धि की दृष्टि से यह मथुरा और द्वारका के ही बराबर समृद्ध था। पहले इस स्थान पर एक वन था, जिसे महाभारत में खांडवप्रस्थ कहा गया है। पाण्डवों ने इसे काट कर इन्द्रप्रस्थ की स्थापना की थी। नगर-जीवन के क्षेत्र में यह विकास का काल था। नदी, पर्वत, और सागर के किनारे अनुकूल जगह को चुनकर इस समय नये नगर बसाये जा रहे थे।

महाभारत में वर्णन

  • महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार प्रारंभ में धृतराष्ट्र से आधा राज्य प्राप्त करने के पश्वात पांडवों ने इन्द्रप्रस्थ में अपनी राजधानी बनाई थी। दुर्योधन की राजधानी लगभग 45 मील दूर हस्तिनापुर में ही रही। इन्द्रप्रस्थ नगर कौरवों की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ के स्थान पर बसाया गया था-
तस्मात् त्वं खांडव-प्रस्थं पुरं राष्ट्रं च वर्धय, ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्च कृत निश्चया:। त्वद्भक्तया जन्तग्श्चान्ये भजन्त्वेव पुरं शुभम्’[2]
  • धृतराष्ट्र ने पांडवों को आधा राज्य देते समय उन्हें कौरवों के प्राचीन नगर व राष्ट्र खांडवप्रस्थ को विवर्धित करके चारों वर्णों के सहयोग से नई राजधानी बनाने का आदेश दिया। तब पांडवों ने श्रीकृष्ण सहित खांडवप्रस्थ पहुँचकर इन्द्र की सहायता से इन्द्रप्रस्थ नामक नगर विश्वकर्मा द्वारा निर्मित करवाया-
‘विश्वकर्मन् महाप्राज्ञ अद्यप्रभृति तत् पुरम्, इन्द्रप्रस्थमति ख्यातं दिव्यं रम्यं भविष्यति’[3]
  • इस नगर के चारों ओर समुद्र की भाँति जल से पूर्ण खाइयां बनी हुई थीं, जो उस नगर की शोभा बढ़ाती थीं। श्वेत बादलों तथा चंद्रमा के समान उज्जल परकोटा नगर के चारों ओर खिंचा हुआ था। इसकी ऊंचाई आकाश को छूती मालूम होती थी-

‘सागर प्रतिरुपाभि: परिखाभिरलंकृताम् प्राकारेण च सम्पन्नं दिवमावृत्य तिष्ठता, पांडुराभ्र प्रकाशेन हिमरश्मिनिभेन च शुशुभेतत् पुरश्रेष्ठ्नागैभोर्गव- तीयथा’[4]

  • इस नगर को सुन्दर और रमणीक बनाने के साथ ही साथ इसकी सुरक्षा का भी पूरा प्रबन्ध किया गया था-
'तल्पैश्चाभ्यासिकैर्युक्तं शुशुमेयोधरक्षितम् तिक्ष्णांकुश शतध्निभिर्यन्त्र जालैश्च शोभितम्;’ ‘सर्वशिल्पविदस्तत्र वासायाभ्यागमंस्तदा, उद्यानानि च रम्याणि नगरस्य समन्तप: ;’ ‘मनोहरैश्चित्र गृहैस्तथा जगतिपर्वतै: वापीभिविर्विधाभिश्च पूर्णाभि: परमाभ्भसा, रम्याश्च विविधास्तत्र पुष्करिण्यो बनावृता:’[5]

इनमें अस्त्र-शस्त्रों का अभ्यास किया जाता था। ऐसी अनेक अटारियों से युक्त और योद्धाओं से सुरक्षित वह नगर शोभा से संयुक्त था। तीखे अंकुश और शतध्वनियों और अन्यान्य शस्त्रों से वह नगर सुशोभित था।

नगर का स्थापत्य

सब प्रकार की शिल्पकलाओं को जानने वाले लोग भी वहाँ आकर बस गये थे। नगर के चारों ओर रमणीय उद्यान थे। मनोहर चित्रशालाओं तथा कृतिम पर्वतों से तथा जल से भरी पूरी नदियों और रमणीय झीलों से वह नगर सुशोभित था। इस नगर का सबसे रोचक वर्णन महाभारत में मिलता है। इसके अनुसार यह कई सुन्दर परिखाओं (खाइयों) द्वारा परिवेष्ठित था, जो अपनी विशालता के कारण लहलहाते सागर की याद दिलाती थी। इस नगर के चतुर्दिक उच्च प्रासाद भी था, जिसमें सुन्दर बुर्ज और दरवाज़े यथास्थान खोले गये थे। नगर की सुरक्षा की दृष्टि से प्रासाद की चोटी पर विध्वंसकारी अस्त्र शस्त्र पहले से ही इकट्ठा कर लिये गये थे। वहाँ के सरोवरों का जल खिले हुये कमलों के द्वारा सुगन्धित हो रहा था। स्थान-स्थान पर रमणीक उपवन भी थे, जो फल-पुष्प के सौरभ से आह्लादित कर देते थे। नगर के भीतर विभिन्न भागों में चित्ताकर्षक चित्रशालायें बनी थीं। खाई के जल में हंस, कारण्डव तथा चक्रवाक आदि पक्षी तैरते रहते थे और उनसे पुर की छटा अन्वेक्षणीय थी।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ इन्द्रप्रस्थ में ही किया था। महाभारत-युद्ध के पश्चात् इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर दोनों ही नगरों पर युधिष्ठिर का शासन स्थापित हो गया। हस्तिनापुर के गंगा की बाढ़ में बह जाने के बाद 900 ई. पू. के लगभग जब पांडवों के वंशज कौशांबी चले गये तो इन्द्रप्रस्थ का महत्त्व भी प्राय: समाप्त हो गया।
  • विधुर पण्डित जातक में इन्द्रप्रस्थ को केवल सात कोश के अन्दर घिरा हुआ बताया गया है, जबकि बनारस का विस्तार 12 कोश तक था।
  • धूमकारी जातक के अनुसार इन्द्रप्रस्थ या कुरु प्रदेश में युधिष्टिर-गोत्र के राजाओं का राज्य था।
  • महाभारत, उद्योग पर्व में इन्द्रप्रस्थ को 'शकपुरी' भी कहा गया है।
  • विष्णु पुराण में इन्द्रप्रस्थ का उल्लेख निम्न प्रकार है-
‘इत्थं वदन्ययौ विष्णुरिन्द्रप्रस्थं पुरोत्तम्’[6]
  • आजकल नई दिल्ली में जहाँ पांडवों का पुराना क़िला स्थित है, उसी स्थान के परवर्ती प्रदेश में इन्द्रप्रस्थ नगर की स्थिति मानी जाती है। पुराने क़िले के भीतर कई स्थानों का संबंध पांडवों से बताया जाता है। दिल्ली का सर्वप्राचीन भाग यही है।
  • दिल्ली के निकट 'इन्द्रपत' नामक ग्राम अभी तक इन्द्रप्रस्थ की स्मृति के अवशेष रूप में स्थित है।

नागरिक

नागरिक विद्या-विनय से सम्पन्न, सभ्य और धर्मपरायण थे। उनमें से कुछ ऐसे थे, जो कई भाषाओं को बोल लेते थे, कुछ कई तरह के शिल्पों पर अधिकार रखते थे। धन प्राप्ति की इच्छा से वहाँ पर विभिन्न दिशाओं के वणिक आते थे। विभिन्न पुर-भागों में धवल तथा उत्तुंग भवन सुशोभित थे। अपनी विलक्षण शोभा द्वारा यह नगर अमरावती की छटा का स्मरण दिला रहा था। महाभारत में आने वाला यह इन्द्रप्रस्थ-वर्णन इस नगर का सर्वोत्तम निरूपण है, जिससे उसके पुराने ठाट-बाट और ऐश्वर्य का ज्ञान होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो हस्तिनापुर के उत्तर पश्चिम में अवस्थित था।
  2. महाभारत, आदि पर्व 206
  3. महाभारत आदिपर्व 206
  4. महाभारत आदिपर्व 206,30-3
  5. महाभारत आदि पर्व 206, 34-40-46-48
  6. विष्णु पुराण 5, 38,34

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