कृष्ण नारद संवाद

कृष्ण संबंधी लेख

यादवों के अंधक-वृष्णि संघ की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनीतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। महाभारत के शांति पर्व के 81वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में है। उसका हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जाता है।

वासुदेव उवाच

  • देवर्षि! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो- ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं।
  • स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।
  • मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ।
  • देवर्षि! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे हृदय को सदा मथता और जलाता रहता है।
  • नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।
  • नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।
  • ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।
  • आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान दु:खदायी होता है)
  • महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता।
  • नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें।

नारद उवाच

नारद मुनि
  • नारद जी ने कहा- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत[1] और परकृत[2] भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं।
  • अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं।
  • आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया।
  • सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते।
  • श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते।
  • बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा।
  • अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोह का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन[3] और अनुमार्जन[4] करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें- उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो)

वासुदेव उवाच

  • भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।

नारद उवाच

  • नारद जी ने कहा- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है।
  • जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें।
  • जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें।
  • समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं।
  • केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए।
  • बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है।
  • श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये।
  • प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।
  • महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।
  • आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।

उक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि अंधक-वृष्णि संघ में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और बाह्य विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। `सभापाल' परिषद बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी, महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से। इससे स्पष्ट है कि महाभारतयुद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी ज़ोर हो गया था।[5]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो आपत्तियाँ स्वत: अपना ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।
  2. जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती है।
  3. क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 'परिमार्जन' कहलाता है।
  4. यथायोग्य सेवा-सत्कार के द्वारा हृदय में प्रीति उत्पन्न करना 'अनुमार्जन' कहा गया है।
  5. विस्तार के लिए देखिये के. एम.मुंशी-ग्लोरी दैट वाज़ गुर्जर देश, पृ.130 तथा वासुदेवशरण अग्रवाल-इंडिया ऎज़ नोन टु पाणिनि(लखनऊ,1953),पृ.452।
  • पुस्तक- महाभारत (पंचम खण्ड) शांतिपर्व |प्रकाशन- गीताप्रेस गोरखपुर |पृष्ठ संख्या- 4332

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