रुक्मिणी सन्देश

रुक्मिणी

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- राजा परीक्षित ने पूछा- "भगवन! हमने सुना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्मक नन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणी देवी को बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधि से उनके साथ विवाह किया था। महाराज! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने जरासंध, शाल्व आदि नरपतियों को जीतकर किस प्रकार रुक्मिणी का हरण किया? ब्रह्मर्षे! भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में क्या कहना है? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देने वाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! महाराज भीष्मक विदर्भदेश के अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी। सबसे बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी और चार छोटे थे, जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थीं सती रुक्मिणी। जब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी, जो उसके महल में आने वाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे, तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं। भगवान श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य, शीलस्वभाव और गुणों में भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणीजी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान ने रुक्मिणीजी से विवाह करने का निश्चय किया। रुक्मिणीजी के भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो। परन्तु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करने से रोक दिया और शिशुपाल को ही अपनी बहिन के योग्य वर समझा।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोंच-विचारकर एक विश्वास-पात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वे ब्राह्मण-देवता द्वारकापुरी में पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मण-देवता ने देखा कि आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं। ब्राह्मणों के परमभक्त भगवान श्रीकृष्ण उन ब्राह्मण-देवता को देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की जैसे देवता लोग उनकी (भगवान की) किया करते हैं। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्न के अनन्तर जब ब्राह्मण-देवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके, तब संतों के परम आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भाव से पूछने लगे- "ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है।

यदि इन्द्र का पद पाकर भी किसी को सन्तोष न हो तो उसे सुख के लिये एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्ति से बैठ नहीं सकेगा। परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकार से सन्तापरहित होकर सुख की नींद सोता है। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहंकार रहित और शान्त हैं, उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। ब्राह्मणदेवता! राजा की ओर से तो आप लोगों को सब प्रकार की सुविधा है न? जिसके राज्य में प्रजा का अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्द से रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है। ब्राह्मणदेवता! आप कहाँ से, किस हेतु से और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें?"

परीक्षित! लीला से ही मनुष्य रूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे। रुक्मिणीजी ने कहा है- "त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आप में ही प्रवेश कर रहा है। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टि से देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम-सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये, ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणी और धर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी? इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं हैं। आप यहाँ पधार कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाय। मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त[2], इष्ट[3], दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके।

प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो, उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासंध की सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये। यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुर में, भीतर के जनाने महलों में पहरे के अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बंधुओं को मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है, जिसमें विवाहि जाने वाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजादेवी के मन्दिर में जाना पड़ता है। कमलनयन! उमापति भगवान शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्माशुद्धि के लिये आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों ने लेने पड़े, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा।"

ब्राह्मण-देवता ने कहा- "यदुवंशशिरोमणे! यही रुक्मिणी के अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्ध में जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 52, श्लोक 18-44
  2. कुआँ, बावली आदि खुदवाना
  3. याज्ञादि करना

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