वृषभासुर

वृषभासुर एक असुर था, जिसे कृष्ण का वध करने के लिए मथुरा के राजा कंस द्वारा भेजा गया था। यह भयंकर साँड़ के रूप में कृष्ण का वध करने आया था। वृषभासुर को 'अरिष्टासुर' भी कहा गया है। श्रीकृष्ण को मारने के उद्देश्य से यह असुर एक दिन गायों के बीच वृषभ का रूप धारण करके आया। वृषभासुर को देखते ही सभी गायें भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगीं। कृष्ण ने वृषभ रूप में आये वृषभासुर को पहचान लिया। असुर वृषभासुर कृष्ण को मारने के लिए दौड़ा, लेकिन कृष्ण ने उसे पैर से पकड़कर मार डाला।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ब्रज में प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सव की धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नाम का एक दैत्य बैल का रूप धारण करके आया। उसका ककुद्[2] या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरों को इतने जोर से पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी। वह बड़े जोर से गर्ज रहा था और पैरों से धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगों से चाहरदीवारी, खेतों की मेड़ आदि तोड़ता जाता था। बीच-बीच में बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें फाड़कर इधर-उधर दौड़ रहा था।

परीक्षित! उसके जोर से हँकड़ने से, निष्ठुर गर्जना से भयवश स्त्रियों और गौओं के तीन-चार महीने के गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच-छः महींने के गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके कुकुद् को पर्वत समझकर बादल उस पर आकर ठहर जाते थे। परीक्षित! उस तीखे सींग वाले बैल को देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहने का स्थान छोड़कर भाग ही गये। उस समय सभी ब्रजवासी ‘श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण! हमें इस भय से बचाओ’ इस प्रकार पुकारते हुए भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये। भगवान ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है। तब उन्होंने "डरने की कोई बात नहीं है"-यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर वृषभासुर को ललकारा- "अरे मूर्ख! महादुष्ट! तू इन गौओं और ग्वालों को क्यों डरा रहा है? इससे क्या होगा। देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टों के बल का घमंड चूर-चूर कर देने वाला यह मैं हूँ।"

इस प्रकार ललकारकर भगवान ने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित करने के लिये वे अपने एक सखा के गले में बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान श्रीकृष्ण की इस चुनौती से वह क्रोध के मारे तिलमिला उठा और अपने खुरों से बड़े जोर से धरती खोदता हुआ श्रीकृष्ण की ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछ के धक्के से आकाश के बादल तितर-बितर होने लगे। उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखों से टकटकी लगाकर श्रीकृष्ण की ओर टेढ़ी नज़र से देखता हुआ वह उन पर इतने वेग से टूटा, मानो इन्द्र के हाथ से छोड़ा हुआ वज्र हो। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपने से भिड़ने वाले दूसरे हाथी को पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया। भगवान के इस प्रकार ठेल देने पर वह फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और क्रोध से अचेत होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उन पर झपटा। उस समय उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था।

भगवान ने जब देखा कि वह अब मुझ पर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उनके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर ज़मीन पर गिरा दिया और फिर पैरों से दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसी का सींग उखाड़कर उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रहा गया। परीक्षित! इस प्रकार वह दैत्य मुँह से खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्ट के साथ प्राण छोड़े। अब देवता लोग भगवान पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बैल के रूप में आने-वाले अरिष्टासुर को मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजी के साथ गोष्ठ में प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियों के नयन-मन आनन्द से भर गये।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 36, श्लोक 1-15
  2. कंधे का पुट्ठा

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