कृष्ण तथा फल बेचने वाली

कृष्ण संबंधी लेख
बालकृष्ण तथा फल वाली

मथुरा की एक भाग्यवती मालिन ब्रज में साग-भाजी तथा फूल-फल बेचने के लिये आया करती थी। नन्‍हे-से सांवरे बालकृष्ण की सलोनी सूरत पर वह अनुरक्‍त थी। मुरली मनोहर की मनोहर मूर्ति उसके मन-मन्दिर में सदा बसी रहती और वह भावों के पुष्‍प चढ़ाकर अहर्निश उनकी अर्चना-पूजा किया करती।

कृष्ण दर्शन की अभिलाषा

श्‍यामसुन्‍दर उसके मनोभाव को जानते थे, किंतु उसके अनुराग को बढ़ाने के निमित्त उससे बोलते नहीं थे। वह जब भी आती, तभी आप खेलने के बहाने निकल जाते। वह बेचारी मन मसोसकर रह जाती और मन-ही-मन कहती- "श्‍यामसुन्‍दर तुम इतने निष्‍ठुर क्‍यों हो, जो तुम्‍हें चाहते हैं, उनसे तुम दूर भागते हो और और जो तुमसे वैर करते हैं, उन्‍हें प्रसन्‍नता से पास बुला लेते हो। तुम्‍हारी इस वक्रता का असली रहस्‍य क्‍या है, इसे कौन जान सकता है।"

मालिन के मन से मदनमोहन कभी दूर हटते ही नहीं थे, किंतु शरीर से सदा अलग ही रहते, मानो वे उससे डरते हों। मालिन घंटों नन्‍दनभवन में बैठी रहती, किंतु नन्‍दलाल के साथ आज तक उसका कभी संलाप नहीं हुआ। कभी उस बिहारी ने मालिन की ओर हँसकर नहीं देखा। प्रेम की कुछ उल्टी ही रीति है, प्रेमी ज्‍यों-ही-ज्‍यों अपनी ओर उपेक्षा के भाव दिखाता है, त्‍यों-ही-त्‍यों अनुराग के भाव अधिकाधिक उमड़ने लगते हैं। प्रेम का स्‍वारस्‍य वियोग में ही है। विकलता उस आनन्‍द का परिवर्द्धन करती है। वेदना ही उसका फल है, चाह ही उस तक पहुँचाती है। मालिन का मन-विहंगम अब दूसरी जगह न जाकर सदा नन्द के आंगन में ही उड़-उड़कर चक्‍कर लगाने लगा।

वैसे तो मालिन साग-पात बेचकर मथुरा चली जाती, किंतु उसका मन गोकुल में रह जाता। प्रात:काल उठते ही वह मन की खोज में फिर गोकुल आती और मनमोहन की मन्‍द-मन्‍द मुस्कान के साथ अपने मन को क्रीड़ा करते देखकर वह अपने आपको भूल जाती। उसका शरीर सांवरे की सुन्‍दर अरुणवर्ण पतली-पतली अंगुलियों को स्‍पर्श करने के लिये सदा उत्‍सुक रहता। मन की एकमात्र यही साध थी कि मेरे रहने का घर भी श्‍यामसुन्‍दर के सुखद स्‍पर्श से पावन बन जाय। जब मालिन की चाह पराकाष्‍ठा को पहुँच गयी, जब उसे संसार में मोहन के सिवा कुछ भी नहीं दीखने लगा, तब फिर मोहन के मिलन में क्‍या देर थी। मोहन तो चाहने वालों से दौड़कर लिपटने वाले हैं, किंतु वह चाह होनी चाहिये असली। अब मालिन की चाह में किसी प्रकार का आवरण नहीं रहा, उसकी चाह मोहनमयी बन गयी थी।

बालकृष्ण से भेंट

एक दिन वह मनमोहन की मंजुल मूर्ति का ध्‍यान करती हुई ब्रज में आवाज दे रही थी- "फल ले लो री फल।" सम्‍पूर्ण फलों के एकमात्र दाता श्रीहरि मालिन से फल खरीदने के लिये घर से दौड़े। बालकृष्ण को देखकर फल वाली ने कहा- "लाला ! जाओ, फल के बदले में कुछ वस्तु ले आओ। बालकृष्ण झट अंदर गये और छोटे-छोटे दोनों हाथों में धान्‍य भरकर जल्‍दी-जल्‍दी हांफते हुए वे मालिन की ओर आने लगे। उनकी अंजुली में से सारा अनाज तो रास्ते में ही गिर गया। जब वे फल वाली के पास पहुँचे, तब उनकी अंजुली में मात्र दो-तीन दाने ही अनाज के बचे थे। फल वाली ने कहा- "लाला क्या वस्तु लाए?" भगवान ने अंजुली खोलकर कहा- "ये इतना ही अनाज है, बाकि तो रास्ते में गिर गया।"

कन्‍हैया के परम दुर्लभ कोमल कर-स्‍पर्श के सुख के लिये अधीर हुई उस मालिन ने कमल की पंखुड़ियों के समान खिले हुए उन दोनों जुड़े हुए हाथों को अपनी टोकरी के सारे फलों से भर दिया। अहा! उस समय उसकी क्‍या दशा हुई होगी, उसका वर्णन कौन कवि अपनी कविता द्वारा करने में समर्थ हो सकता है। श्‍यामसुन्‍दर के लिये उसने सर्वस्‍व समर्पण कर दिया। सम्‍पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले श्रीहरि ने भी अमूल्‍य रत्न तथा मोतियों से उसकी टोकरी को भर दिया। मालिन का जीवन सफल हुआ। उसने साधारण फल देकर फलों का भी परम फल, दिव्‍य फल प्राप्‍त किया। मनमोहन का ध्‍यान करते-करते वह उन्‍हीं की नित्‍यकिंकरी हो गयी। प्रभु ने उसे अपना लिया। उसी क्षण वह धन्‍य हो गयी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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