कृष्ण की अग्रपूजा

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासंध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासंधनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले। उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दुःख हुआ। इन्द्रप्रस्थनिवासियों का मन उस शंखध्वनि को सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासंध मर गया और अब राजा युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ करने का संकल्प एक प्रकार से पूरा हो गया। भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासंध के वध के लिये करना पड़ा था। धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! धर्मराज युधिष्ठिर जरासंध का वध और सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले। धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- "सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! त्रिलोकी के स्वामी ब्रह्मा, शंकर आदि और इन्द्रादि लोकपाल-सब आपकी आज्ञा पाने के लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धा से उसको शिरोधार्य करते हैं।अनन्त! हम लोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपने को भूपति और नरपति। ऐसी स्थिति में हैं तो हम दण्ड के पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान कमलनयन भगवान के लिये यह मनुष्य-लीला का अभिनयमात्र है। जैसे उदय अथवा अस्त के कारण सूर्य के तेज में घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकार के कर्मों से न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित स्वयं पर परब्रह्म परमात्मा हैं। किसी से पराजित न होने वाले माधव! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’, इस प्रकार की विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओं की होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्त में ऐसे पागलपन के विचार कभी नहीं आते। फिर आप में तो होंगे ही कहाँ से?"[2]

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज, आचार्य आदि के रूप में वरण किया। उनके नाम ये हैं- श्रीकृष्णाद्वैपायन व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरी, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण

इनके अतिरिक्त धर्मराज ने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदि को भी बुलवाया। राजन! राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिये देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र -सब-के-सब वहाँ आये।

इसके बाद ऋत्विज ब्राह्मणों ने सोने के हलों से यज्ञभूमि को जुतवाकर राजा युधिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी। प्राचीन काल में जैसे वरुणदेव के यज्ञ में सब-के-सब यज्ञपात्र सोने के बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिर के यज्ञ में भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शंकरजी, इन्द्र आदि लोकपाल, अपने गणों के साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ, ये सभी उपस्थित हुए।

सबने बिना किसी प्रकार के कौतूहल के यह बात मान ली कि राजसूय यज्ञ करना युधिष्ठिर के योग्य ही है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के भक्त के लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओं के समान तेजस्वी याजकों ने धर्मराज युधिष्ठिर से विधिपूर्वक राजसूय यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण से करवाया था। सोम लता से रस निकालने के दिन महाराज युधिष्ठिर ने अपने परम भगवान याजकों और यज्ञ कर्म की भूल-चूक का निरिक्षण करने वाले सदसस्पतियों का बड़ी सावधानी से विधिपूर्वक पूजन किया।

अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा, 'अग्रपूजा' होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा- "यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूप में भी ये ही हैं। यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग, ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के ही हेतु हैं। सभासदों! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ, भगवान श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्र का भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत उन्हीं का स्वरूप है। वे अपने-आप में ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छः भावविकारों से रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप संकल्प से ही जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। सारा जगत श्रीकृष्ण के ही अनुग्रह से अनेकों प्रकार के कर्म का अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थों का सम्पादन करता है। इसलिये सबसे महान भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करने से समस्त प्राणियों की तथा अपनी भी पूजा हो जाती है। जो अपने दान-धर्म को अनन्त भाव से युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थों के अतरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण को ही दान करे।"

परीक्षित! सहदेव भगवान की महिमा और उनके प्रभाव को जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस समय युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वर से ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदों का अभिप्राय जानकर बड़े आनन्द से प्रेमोद्रेक से विह्वल होकर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की। अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम और आनन्द से भगवान के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलों का लोकपावन जल अपने सिर पर धारण किया। उन्होंने भगवान को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्द के आँसुओं से इस प्रकार भर गये कि वे भगवान को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे। यज्ञसभा में उपस्थित सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण को इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नमः ! जय जय !’ इस प्रकार के नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाश से स्वयं ही पुष्पों की वर्षा होने लगी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 73, श्लोक 31-34 तथा अध्याय 74, श्लोक 1-29
  2. इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है।

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