अघासुर वध

दैत्य अघासुर

मथुरा के राजा कंस के दैत्यों में अघासुर बड़ा भयानक था। वह वेश बदलने में दक्ष तो था ही, बड़ा शूरवीर और मायावी भी था। कंस ने कृष्ण को हानि पहुँचाने के लिए बकासुर के पश्चात् अघासुर को भेजा।

दोपहर के पहले का समय था। गऊएँ चर रहीं थीं। ग्वाल-बाल इधर-उधर घूम रहे थे। बालकृष्ण चरती गायों को बड़े ध्यान से देख रहे थे। बालकृष्ण यह जानकर चकित हो उठे कि उनके ग्वाल बालों में कोई भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। गऊएँ रह-रहकर हुंकार रही हैं। बालकृष्ण विस्मित होकर आगे बढ़े। वे ग्वाल-बालों को पुकार-पुकार कर उन्हें खोजने लगे, किंतु न तो उन्हें कोई उत्तर मिला, न ही कोई ग्वाल-बाल दिखाई पड़ा। कृष्ण चिंतित होकर सोचने लगे, आख़िर सब गए तो कहाँ गए? कोई उत्तर क्यों नहीं दे रहा है? श्रीकृष्ण कुछ और आगे बढ़े। उन्होंने आगे जाकर जो कुछ देखा, उससे उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। एक भयानक अजगर मार्ग में पड़ा हुआ था, जो ज़ोर-ज़ोर से सांसे ले रहा था। वह कृष्ण को देखते ही और भी ज़ोर-ज़ोर से सांसे लेने लगा। वह अजगर नहीं अपितु अजगर के रूप में कंस द्वारा भेजा गया दैत्य अघासुर था। उसी ने अपनी सांसों द्वारा ग्वाल-बालों को अपने पेट के अंदर खींच लिया था। उसने सोचा था कि वह कृष्ण को भी अपनी सांसों द्वारा अपने पेट के अंदर खीच लेगा। उसे क्या पता था कि जो कृष्ण सारे ब्रह्माण्ड को अपनी ओर खींच लेते हैं, उन्हें कौन खींच सकता है?

अजगर के रूप में पड़े हुए अघासुर को कृष्ण देखते ही पहचान गए। वे समझ गए कि यह कोई अजगर नहीं, वरन् कोई दैत्य है और इसी ने अपनी सांसों द्वारा ग्वाल-बालों को अपने पेट में खींच लिया है। वे सावधान हो गए। उधर अजगर कृष्ण को खींचने के लिए ज़ोर-ज़ोर से सांसे ले रहा था। कृष्ण अपने आप ही अजगर के मुख के पास जा पहुँचे। उन्होंने दोनों हाथों से अजगर का मुख पकड़कर उसे फाड़ डाला। उन्होंने अजगर के बहुत बड़े पेट के भीतर घुसकर अपने शरीर का विस्तार किया। इतना विस्तार किया कि अजगर का पेट फट गया। उसके पेट के भीतर से सभी ग्वाल-बाल सकुशल बाहर निकल आए। ग्वाल-बालों ने सायंकाल बस्ती में आकर अपने माता-पिता को बताया कि किस तरह श्रीकृष्ण ने अजगर से उनकी रक्षा की। नंद, यशोदा और बस्ती के सभी गोप तथा गोपियाँ कृष्ण की बलैयाँ लेने लगे। उनके शौर्य की प्रशंसा करने लगे। साथ ही ईश्वर को धन्यवाद देने लगे कि उनकी कृपा से कन्हैया का बाल तक बांका नहीं हुआ। कृष्ण इसी प्रकार वृन्दावन में गऊएँ चराते, बाल-लीलाएँ करते और कंस द्वारा भेजे हुए राक्षसों को मारकर ग्वाल-बालों की रक्षा किया करते थे।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्री शुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वन में ही कलेवा करने के विचार से बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजे की मधुर मनोहर ध्वनि से अपने साथी ग्वालबालों के मन की बात जानते हुए उन्हें जगाया और बछड़ों को आगे करके वे ब्रज से निकल पड़े। श्रीकृष्ण के साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहत्रों बछड़ों को आगे करके बड़ी प्रसन्नता से अपने-अपने घरों से चल पड़े। उन्होंने श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों में अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थान पर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे। यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्ण के गहने-पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों से, नयी-नयी कोंपलों से, गुच्छों से, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखों से तथा गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को सजा लिया। कोई किसी का छीका चुरा लेता, तो कोई किसी की बेंत या बाँसुरी। जब उन वस्तुओं के स्वामी को पता चलता, तब उन्हें लेने वाला किसी दूसरे के पास दूर फ़ेंक देता, दूसरा तीसरे के और तीसरा और भी दूर फ़ेंक देता। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते।

यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वन की शोभा देखने के लिए कुछ आगे बढ़ जाते, तो "पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा", इस प्रकार आपस में होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते। कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भौरों के साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं। एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसों की छाल की नक़ल करते हुए उनके साथ सुन्दर गति से चल रहे हैं। कोई बगुले के पास उसी के समान आँख मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरों को नाचते देख उन्हीं की तरह नाच रहे हैं। कोई-कोई बंदरों की पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़ से उस पेड़ पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगा रहे हैं।

बहुत-से ग्वालबाल तो नदी के कछार में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेंढ़कों के साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं। कोई पानी में अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे शब्द की प्रतिध्वनि को ही बुरा-भला कह रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिए स्वयं ब्रह्मानंद के मूर्तिमान अनुभव हैं। दास्यभाव से युक्त भक्तों के लिए वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं और माया-मोहित विषयान्धों के लिए वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं। उन्हीं भगवान के साथ वे महान पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल-खेल रहें हैं। बहुत जन्मों तक श्रम और कष्ट उठाकर उन्होंने अपनी इन्द्रियों और अंतःकरण को वश में कर लिया है, उन योगियों के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है। वही भगवान स्वयं जिन ब्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय।

परीक्षित! इसी समय अघासुर नाम का महान दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीड़ा देखी न गयी। उसके हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि "यही मेरे सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूँगा। जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृततर्पण की तिलांजलि बन जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे।"

ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकों को निगल जाने की थी, इसलिए उसने कन्दरा के समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था। उसका नीचे का होंठ पृथ्वी से और ऊपर का होंठ बादलों से लग रहा था। उसके जबड़े कन्दराओं के समान थे और दाढ़े पर्वत के शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँह के भीतर घोर-अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी। सांस आँधी के सामान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं।

अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है। वे कौतुहलवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है। कोई कहता- "मित्रों! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिए खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है?" दूसरे ने कहा- "सचमुच सूर्य की किरणें पड़ने से ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों ठीक-ठीक उसका ऊपरी होंठ ही हो और इन्हीं बादलों की परछाईं से यह जो नीचे की भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचे का होंठ जान पड़ता है।" तीसरे ग्वालबालक ने कहा- "हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओर की गिरी-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर पंक्तियाँ तो साफ़-साफ़ इसकी दाढ़े मालूम पड़ती हैं।" चौथे ने कहा- "अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगर की जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरीश्रृंगों के बीच का अन्धकार तो उसके मुँह के भीतरी भाग को भी मात करता है।"

किसी दूसरे ग्वालबाल ने कहा- "देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगल में आग लगी है। इसी से यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगर की सांस के साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है और उसी आग में जले हुए प्राणियों की दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है मानो अजगर के पेट में मरे हुए जीवों के मांस की ही दुर्गन्ध हो।" तब उन्हीं में से एक ने कहा- "यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायँ, तो क्या हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा। हमारा कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।" इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गये। उन अनजान बच्चों की आपस में हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि "अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है।"

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुँह में जाने से बचा लें। भगवान इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस असुर के पेट में चले गये। परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस बात की बाट देख रहा था कि उनको मारने वाले श्रीकृष्ण भी मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ।

भगवान श्रीकृष्ण सबको अभय देने वाले हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल, जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ, मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्यु रूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये, तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान को बड़ा विस्मय हुआ। उनका हृदय दया से द्रवित हो गया। वे सोचने लगे कि "अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकों की हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं?" परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान-सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उसके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था।

वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं अजगर रूपी अघासुर के मुँह में घुस गये। उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया। इसके बाद भगवान ने अपने शरीर को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला रूँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। सांस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये। उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी इन्द्रियाँ भी शरीर से बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालों को जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुँह के बाहर निकल आये।

उस अजगर के स्थूल शरीर से एक अत्यन्त अद्भुत और महान ज्योति निकली। उस समय उस ज्योति के प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देर तक तो आकाश में स्थित होकर भगवान के निकलने की प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओं के देखते-देखते उन्हीं में समा गयीं। उस समय देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर, ब्राह्मणों ने स्तुति-पाठकर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने अघासुर को मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था। उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवों की मंगलध्वनि ब्रह्मा-लोक के पास पहुँच गयी। जब ब्रह्मा जी ने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहन पर चढ़कर वहाँ आये और भगवान श्रीकृष्ण की यह महिमा देखकर आश्चर्यचकित हो गये।

परीक्षित! जब वृन्दावन में अजगर वह चाम[2] सूख गया, तब वह ब्रजवासियों के लिए बहुत दिनों तक खेलने की एक अद्भुत गुफ़ा-सी बना रहा। यह जो भगवान ने अपने ग्वालबालों को मृत्यु के मुख से बचाया था और अघासुर को मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान ने अपने कुमार अवस्था में अर्थात पाँचवें वर्ष में ही की थी। ग्वालबालों ने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु गौगण्ड अवस्था अर्थात छठे वर्ष में अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर ब्रज में उसका वर्णन किया।

अघासुर मूर्तिमान अघ (पाप) ही था। भगवान के स्पर्शमात्र से उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्ति की प्राप्ति हुई, जो पापियों को कभी मिल नहीं सकती। परन्तु यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मनुष्य-बालक की-सी लीला रचने वाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारण रूप समस्त जगत के एकमात्र विधाता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के किसी एक अंग की भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यान के द्वारा एक बार भी हृदय में बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गति का दान करती हैं, जो भगवान के बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है। भगवान आत्मानन्द के नित्य साक्षातस्वरूप हैं। माया उनके पास तक नहीं फटक पाती। वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये। क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई संदेह है?


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 12, श्लोक 1-39
  2. चर्म, चमड़ा

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