ज्योतिष्मती

ज्योतिष्मती बलराम की अर्धांगिनी रेवती के पूर्वजन्म का नाम था। जब चाक्षुष मनु यज्ञ कर रहे थे, तब उनके यज्ञ कुण्ड से एक कन्या प्रकट हुई। मनु ने उसे अपनी पुत्री बना लिया और उसका नाम रखा- ज्योतिष्मती। जब उसके विवाह का प्रश्न आया तो कन्या ने कह दिया कि- "जो सबसे बलवान हो, वही मेरे स्वामी होंगे।"

कठिन तपस्या

सबसे बलवान कौन? पृथ्वी पर तो बल में तारतम्य रहता ही है। देवलोक में इंद्र, वायु आदि देवता भी अपने को सबसे अधिक बलवान कैसे कह देते। अंत में निर्णय हुआ, जो सबसे बलवान भगवान अनन्त, जिनके सहस्र फणों में से एक फण पर संपूर्ण धरा मंडल नन्हीं सर्षप के समान प्रलय पर्यंत धरा रहता है। भगवान अनन्त तक तो मनु पहुँच नहीं सकते थे। देवताओं की भी पहुँच वहाँ तक नहीं थी। उनकी कृपा हो तो वे किसी को दर्शन दें। उनके साथ मनु पुत्री का कैसे विवाह कर देते? किंतु ज्योतिष्मती निराश नहीं हुई। उसने तप करना प्रारंभ किया– "मेरे वही स्वामी हैं। मैं तपस्या करके उन्हें प्राप्त करूंगी।"[1]

इन्द्र का शाप

इंद्र, यम, कुबेर, अग्नि आदि कई देवता और लोकपाल उस तपस्विनी के पास पहुँचे। कोई छल नहीं, सब अपने स्वरूप में ही उसके तपोवन में गए। प्रत्येक ने अपने पराक्रम का स्वयं वर्णन किया और प्रार्थना की– "देवि! आप पति रूप से हमें स्वीकार कर लो।" तुम्हारा इतना साहस कि मेरे पाणि की प्रार्थना करने आ गए। ज्योतिष्मती त्रिलोक सुंदरी थी तो अकल्प्य तेजस्विनी भी थी। उसने प्रार्थना करने आए देवता को अस्वीकार ही नहीं किया, प्रत्येक देवता को कोई न कोई शाप दे दिया। देवराज इंद्र कुपित हुए। उन्होंने भी शाप दिया- "उग्रतेजा! तुमने देवताओं को अकारण ही शाप दिया है। कुमारी कन्या से विवाह की प्रार्थना करना कोई अपराध नहीं है। तुम अस्वीकार कर देतीं–कोई छ्ल या बल का प्रयोग तो नहीं कर रहा था। तुमने निरपराधों को शाप दिया है, अत: अनन्त पराक्रम भगवान अनन्त को पति रूप में प्राप्त करके भी तुम्हें पुत्रोत्सव का आनंद नहीं प्राप्त होगा।" लेकिन भगवान अनन्त की अर्धांगिनी को शाप देकर उस पर स्थिर रहना बहुत कठिन था। देवराज को स्वयं कहना पड़ा– "यदि आपके स्वामी देवताओं का संकट हरण करेंगे तो यह शाप निष्प्रभाव हो जाएगा। शाप अन्तत: प्रभावहीन हो गया।"

"धन्यवाद! मैं उन श्रीचरणों में अनन्य प्रेम चाहती हूँ।" तेजस्विनी ज्योतिष्मती ने इंद्र के शाप की उपेक्षा कर दी– "मेरे प्रेम में दूसरा कोई–कोई संतान भी भाग लेने आवे, यह मुझे नहीं चाहिए।" ज्योतिष्मती का तप कठिन था। उसका तप: तेज बढ़ता चला गया। ब्रह्मा विवश हुए–उनकी सृष्टि ही समाप्त हो जाए यदि कोई सत्त्वगुण को सीमातीत बढ़ाता चला जाए। मनु की कन्या–वह पार्थिव वपु तो नहीं थी कि उसका शरीर कष्ट सहन की कोई सीमा पाकर नष्ट हो जाए। हंस वाहन लोकस्रष्टा प्रकट हुए। उन्होंने अनुरोध के स्वर में कहा- "पुत्री ! अब तुम इस कठिन तप का त्याग करो। वैवस्वत मन्वन्तर की अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के द्वापरांत में भगवान अनन्त धरा पर अवतीर्ण होंगे। मैं वचन देता हूँ कि वे तुम्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लेंगे।"

बलराम से विवाह

ज्योतिष्मती के लिए काल का प्रश्न नहीं था। दूसरा जन्म लेने में भी आपत्ति नहीं थी। वह अनन्त काल तक प्रतीक्षा करेगी–आवश्यक हो तो घोर तप करती रहेगी। उसके आराध्य यदि लक्ष–लक्ष जन्म लेने पर प्रसन्न हों तो वह बार–बार मरेगी और जन्म लेगी, किंतु वे प्रसन्न हों। वे इस किंकरी को स्वीकार करें। भगवान ब्रह्मा उसे इसी देह से ब्रह्मलोक चलने को कह रहे थे। वह प्रसन्न हो गई। ब्रह्मलोक चली गई। इस वैवस्वत मन्वन्तर की प्रथम चतुर्युगी के सतयुग में वैवस्वत मनु के वंश में महाराज शर्याति हुए। उनके तीन पुत्र थे–उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेम। इनमें से आनर्त के पुत्र हुए रेवत। इन महाराज रेवत ने ही समुद्र के मध्य में पहले कुशस्थली नगर बसाया। इनके सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र थे ककुदमी। नि:संतान ककुदमी ने जब संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ प्रारंभ किया तो उनके यज्ञकुण्ड से ब्रह्मा के आदेश से ज्योतिष्मती प्रकट हो गई। अपनी इस अयोनिजा कन्या का नाम ककुदमी ने रेवती रखा।[2] बाद में रेवती का विवाह श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम से हुआ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह चक्र पृ. 271
  2. भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह चक्र पृ. 272

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