महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-20

अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

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महाभारत: शल्य पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


बदरपाचन तीर्थ की महिमा के प्रसंग में श्रुतावती और अरुन्धती के तप की कथा


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! पहले कहा गया है कि वहाँ से बलराम जी बदरपाचन नामक श्रेष्ठ तीर्थ में गये, जहाँ तपस्वी और सिद्ध पुरुष विचरण करते हैं तथा जहाँ पूर्वकाल में उत्तम व्रत धारण करने वाली भरद्वाज की ब्रह्मचारिणी पुत्री कुमारी कन्या श्रुतावती, जिसके रूप और सौन्दर्य की भूमण्डल में कहीं तुलना नहीं थी, निवास करती थी। वह भामिनी बहुत से नियमों को धारण करके वहाँ अत्यन्त उग्र तपस्या कर रही थी। उसने अपनी तपस्या का यही उद्देश्य निश्चित कर लिया था कि देवराज इन्द्र मेरे पति हों। कुरुकुलभूषण! स्त्रियों के लिये जिनका पालन अत्यन्त दुष्कर और दुःसह है, उन-उन कठोर नियमों का पालन करती हुई श्रुतावती के वहाँ अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। प्रजानाथ! उसके उस आचरण, तपस्या तथा पराभक्ति से भगवान पाकशासन (इन्द्र) बड़े प्रसन्न हुए। वे शक्तिशाली देवराज ब्रह्मर्षि महात्मा वसिष्ठ का रूप धारण करके उसके आश्रम पर आये। भरतनन्दन! उसने तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ और उग्र तपस्या परायण वसिष्ठ को देखकर मुनिजनोचित आचारों द्वारा उनका पूजन किया। फिर नियमों का ज्ञान रखने वाली और मधुर एवं प्रिय वचन बोलने वाली कल्याणमयी श्रुतावती ने इस प्रकार कहा- ‘भगवन! मुनिश्रेष्ठ! प्रभो! मेरे लिये क्या आज्ञा है? सुव्रत! आज मैं यथा शक्ति आपको सब कुछ दूंगी; परंतु इन्द्र के प्रति अनुराग रखने के कारण अपना हाथ आपको किसी प्रकार नहीं दे सकूंगी। तपोधन! मुझे अपने व्रतों, नियमों तथा तपस्या द्वारा त्रिभुवन सम्राट भगवान इन्द्र को ही संतुष्ट करना है’।

भारत! श्रुतावती के ऐसा कहने पर भगवान इन्द्र ने मुस्कराते हुए से उसकी ओर देखा और उसके नियम को जानकर उसे सान्त्वना देते हुए से कहा- ‘सुव्रते! मैं जानता हूँ तुम बड़ी उग्र तपस्या कर रही हो। कल्याणि! सुमुखि! जिस उद्देश्य से तुमने यह अनुष्ठान आरम्भ किया है और तुम्हारे हृदय में जो संकल्प है, वह सब यथार्थ रूप से सफल होगा। शुभानने! तपस्या से सब कुछ प्राप्त होता है। तुम्हारा मनोरथ भी यथावत रूप से सिद्ध होगा। देवताओं के जो दिव्य स्थान हैं, वे तपस्या से प्राप्त होने वाले हैं। महान सुख का मूल कारण तपस्या ही है। कल्याणि! इस उद्देश्य से मनुष्य घोर तपस्या करके अपने शरीर को त्याग कर देवत्व प्राप्त कर लेते हैं। अच्छा, अब तुम मेरी एक बात सुनो। सुभगे! शुभव्रते! ये पांच बेर के फल हैं। तुम इन्हें पका दो।’ ऐसा कहकर भगवान इन्द्र कल्याणी श्रुतावती से पूछकर उस आश्रम से थोड़ी ही दूर पर स्थित उत्तम तीर्थ में गये और वहाँ स्नान करके जप करने लगे। मानद! वह तीर्थ तीनों लोकों में इन्द्र-तीर्थ के नाम से विख्यात है। देवराज भगवान पाकशासन ने उस कन्या के मनोभाव की परीक्षा लेने के लिये उन बेर के फलों को पकने नहीं दिया। राजन! तदनन्तर शौचाचार से सम्पन्न उस तपस्विनी ने थकावट से रहित हो मौन भाव से उन फलों को आग पर चढ़ा दिया। नृपश्रेष्ठ! फिर वह महाव्रता कुमारी बड़ी तत्परता के साथ उन बेर के फलों को पकाने लगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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