महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 307 श्लोक 1-16

सप्‍ताधिकात्रिशततम (307) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व:सप्‍ताधिकात्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


विद्या-अविद्या, अक्षर और क्षर तथा प्रकृति और पुरुष के स्‍वरूप का एवं विवेकी के उद्गगार का वर्णन

वसिष्‍ठ जी कहते हैं— नृपश्रेष्‍ठ! यहाँ तक मैंने तुम्‍हें सांख्‍यदर्शन की बात बतायी है। अब इस समय तुम मुझसे विद्या और अविद्या का वर्णन क्रम से सुनो। मुनियों ने सृष्टि और प्रलयरूप धर्म वाले कार्य सहित अव्‍यक्‍त को ही अविद्या कहा है तथा चौबीस तत्त्वों से परे जो पचीसवाँ तत्त्व परम पुरुष परमात्‍मा है, जो सृष्टि और प्रलय से रहित है, उसी को विद्या कहते हैं। तात! ऋषियों ने जिस प्रकार सांख्‍यदर्शन की बात बतायी है, उसी प्रकार तुम अव्‍यक्‍त का जो पारस्‍परिक भेद है, उनमें जो जिसकी विद्या है अर्थात् श्रेष्‍ठ है, उसका वर्णन क्रम से सुनो। हमने सुन रक्खा है कि समस्‍त कर्मेन्द्रियों की विद्या ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। अर्थात् कर्मेन्द्रियों से ज्ञानेन्द्रियों श्रेष्‍ठ हैं और ज्ञानेन्द्रियों की विद्या पंचमहाभूत हैं। मनीषी पुरुष कहते हैं कि स्‍थूल पंचभूतों की विद्या मन है और मन की विद्या सूक्ष्‍म पंचभूत हैं। नरेश्‍वर! उन सुक्ष्‍म पंचभूतों की विद्या अहंकार है, इसमें कोई संशय नहीं है तथा अहंकार की विद्या बुद्धि मानी गयी है। नरश्रेष्‍ठ! अव्‍यक्‍त नामवाली जो परमेश्‍वरी प्रकृति है, वह सम्‍पूर्ण तत्त्वों की विद्या है। यह विद्या जानने योग्‍य है। इसी को ज्ञान की परम विधि कहते हैं। पचीसवें तत्त्व के रूप में जिस परम पुरुष परमात्‍मा की चर्चा की गयी है, उसी को अव्‍यक्‍त प्रकृति की परम विद्या बताया गया है। राजन्! वही सम्‍पूर्ण ज्ञान का सर्वरूप ज्ञेय है। ज्ञान अव्‍यक्‍त कहा गया है और परम पुरुष ज्ञेय बताया गया है, उसी प्रकार ज्ञान अव्‍यक्‍त है और उसका ज्ञाता परम पुरुष है। राजन्! मैंने तुम्‍हारे समक्ष यथार्थरूप से विद्यासहित अविद्या का विशेष रूप से वर्णन किया है। अब जो क्षर और अक्षर तत्त्व कहे गये हैं; उनके विषय में मुझे से सुनो। सांख्‍यमत में प्रकृति और पुरुष दोनों को ही अक्षर कहा गया है तथा ये ही दोनों क्षर भी हैं। मैं अपने ज्ञान के अनुसार इसका यथार्थ कारण बतलाता हूँ। ये दोनों ही अनादि और अनन्‍त हैं; अत: परस्‍पर संयुक्‍त होकर दोनों ही ईश्‍वर (सर्वसमर्थ) माने गये हैं। सांख्‍यज्ञान का विचार करने वाले विद्वान् इन दोनों को ही ‘तत्त्व’ कहते हैं। सृष्टि और प्रलय प्रकृति का धर्म है। इसलिये प्रकृति को अक्षर कहा गया है। वही प्रकृति महत्तत्त्व आदि गुणों की सृष्टि के लिये बारंबार विकार को प्राप्‍त होती है; इसलिये उसे क्षर भी कहा जाता है। महतत्त्व आदि गुणों की उत्‍पत्ति प्रकृति और पुरुष के परस्‍पर संयोग से होती है; अत: एक-दूसरे का अधिष्‍ठान होने के कारण पुरुष को भी क्षेत्र कहते हैं। योगी जब अपने योग के प्रभाव से प्रकृति के गुण- समूह को अव्‍यक्‍त मूल प्रकृति में विलीन कर देता है, तब उन गुणों का विलय होने के साथ-साथ पचीसवाँ तत्त्व पुरुष भी परमात्‍मा में मिल जाता है। दुष्टि से उसे भी क्षर कर सकते हैं। तात! तब कार्यभूत गुण कारण भूत गुणों में लीन हो जाते हैं, उस समय सब कुछ एकमात्र प्रकृतिस्‍वरूप हो जाता है तथा जब क्षेत्रज्ञ भी परमात्‍मा में लीन हो जाता है, जब उसका भी पृथक् अस्तित्त्व नहीं रहता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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