महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 170 श्लोक 1-18

सप्‍तत्‍यधिकशततम (170) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

गौतम का राजधर्मद्वारा आतिथ्‍यसत्‍कार और उसका राक्षसराज विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश

भीष्‍म जी की कहते हैं- राजन्! पक्षी की वह मधुर वाणी सुनकर गौतम को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। वह कौतूहलपूर्ण दृष्टि से राजधर्मा की ओर देखने लगा। राजधर्मा बोला- द्विजश्रेष्‍ठ! मैं महर्षि कश्‍यप का पुत्र हूँ। मेरी माता दक्ष प्रजा‍पति की कन्‍या हैं। आप गुणवान् अतिथि हैं, मैं आपका स्‍वागत करता हूँ।

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर राजधर्मा ने शास्‍त्रीय विधि के अनुसार गौतम का सत्‍कार किया। शाल के फूलों का आसन बनाकर उसे बैठने के लिये दिया। राजा भगीरथ के रथ से आक्रांत हुए जिन भूभागों में श्रीगग्‍ङाजी प्रवाहित होती हैं, वहाँ गग्‍ङाजी के जल में जो बडे़–बडे़ मत्‍स्‍य विचरते हैं, उन्‍हीं में से कुछ मत्‍स्‍यों को लाकर राजधर्मा ने गौतम के लिये भोजन की व्‍यवस्‍था की कश्‍यप के उस पुत्र ने अग्नि प्रज्‍वलित कर दी और मोटे–मोटे मत्‍स्‍य लाकर अपने अति‍थि गौतम को अर्पित कर दिये। वह ब्राह्मण उन मत्‍स्‍यों को पकाकर जब खा चुका और उसकी अंतरात्‍मा तृप्‍त हो गयी, तब वह महातपस्‍वी पक्षी उसकी थकावट दूर करने के लिये अपने पंखों से हवा करने लगा। विश्राम के पश्‍चात् जब वह बैठा, तब राजधर्मा ने उससे गोत्र पूछा। गौतम ने कहा- ‘मेरा नाम गौतम है और मैं जाति से ब्राह्मण हूँ।’ इससे अधिक कोई बात वह बता न सका। तब पक्षी ने उसके लिये पत्तों का दिव्‍य बिछावन तैयार किया, जो फूलों से अधिवासित होने के कारण सु्गंध से मंह–मंह महक रहा था। वह बिछावन उसे दिया और गौतम उस पर सुखपूर्वक सोया।

धर्मराज! जब गौतम उस बिछौने पर बैठा तब बात-चीत में कुशल कश्‍यपकुमार ने पूछा- ‘ब्रह्मन्! आप इधर किस लिये आये हैं?’ भारत! तब गौतम ने उससे कहा- ‘महामते! मैं दरिद्र हूँ और धन के लिये समुद्रतट पर जाने की इच्‍छा लेकर घर से चला हूं’। यह सुनकर राजधर्मा ने प्रसन्‍न होकर कहा- ‘द्विजश्रेष्‍ठ! अब आप वहाँ तक जाने के लिये उत्‍सुक न हों, यहीं आपका काम हो जायेगा।

आप यहीं से धन लेकर अपने घर को जाइयेगा। ‘प्रभों! बृहस्‍पतिजी के मत के अनुसार अर्थ की सिद्धि चार प्रकार से होती है- वंशपरम्‍परा से, प्रारब्‍ध की अनुकूलता से, धन के लिये किये गये सकाम कर्म से और मित्र के सहयेाग से। ‘मैं आपका मित्र हो गया हूँ, आपके प्रति मेरा सौहार्द बढ़ गया है; अत: मैं ऐसा प्रयत्‍न करूंगा जिससे आपको अर्थ की प्राप्ति हो जायेगी’। तदनन्‍तर जब प्रात:काल हुआ तब राजधर्मा ने ब्राह्मण के सुख का उपाय सोचकर इस प्रकार कहा- ‘सौम्‍य! इस मार्ग से जाइये, आपका कार्य सिद्ध हो जायेगा। यहाँ से तीन योजन दूर जाने पर जो नगर मिलेगा, वहाँ महाबली राक्षसराज विरूपाक्ष रहते हैं, वे मेरे महान् मित्र हैं। ‘द्विजश्रेष्‍ठ! आप उनके पास जाइये। वे मेरे कहने से आपको यथेष्‍ट धन देंगे और आपकी मनोवाञ्छित कामनाएँ पूर्ण करेंगे, इसमें संशय नहीं है’। राजन्! उसके ऐसा कहने पर गौतम वहाँ से चल दिया। उसकी सारी थकावट दूर हो चुकी थी। महाराज! मार्ग में तेजपातों के वन में, जहाँ चंदन और अगुरु के वृक्षों की प्रधानता थी, विश्राम करता और इच्‍छानुसार अमृत के समान मधुर फल खाता हुआ वह बड़ी तेजी से आगे बढ़ता चला गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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