महाभारत वन पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-22

चतुःषष्टितम (64) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुःषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


दमयन्ती का विलाप और प्रलाप, तपस्वियों द्वारा दमयन्ती को आश्वासन तथा उनकी व्यापारियों के दल से भेंट

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन्! व्याध का विनाश करके वह कमलनयनी राजकुुमारी झिल्लियों की झंकार से गूंजते हुए निर्जन एवं भयंकर वन में आगे बढ़ी। वह वन सिंह, चीतों, रुरुमृग, व्याघ्र, भैंसों तथा रीछ आदि पशुओं से युक्त एवं भाँति-भाँति के पक्षिसमुदाय से व्याप्त था। वहाँ म्लेच्छ और तस्करों का निवास था। शाल, वेणु, धव, पीपल, तिन्दुक, इंदुग, पलाश, अर्जुन, अरिष्ट, स्वन्दन (तिनिश), सेमल, जामुन, आम, लोध, खैर, साखू, बेंत, आंवला, पाकर, कदम्ब, गूलर, बेर, बेल, बरगद, प्रियाल, ताल, खजूर, हर्रे तथा बहेड़े आदि वृक्षों से यह विशाल वन परिपूर्ण हो रहा था। दमयन्ती ने वहाँ सैकड़ों धातुओं से संयुक्त नाना प्रकार के पर्वत, पक्षियों के कलरवों से गुंजायमान कितने ही निकुंज और अद्भुत कन्दराएं देखीं।

कितनी ही नदियों, सरोवरों, बावलियों तथा नाना प्रकार के मृगों और पक्षियों को देखा। उसने बहुत-से भयानक रूप वाले पिशाच, नाग तथा राक्षस देखे। कितने ही गड्ढों, पोखरों और पर्वतशिखरों का अवलोकन किया। सरिताओं और अद्भुत झरनों को देखा। विर्दभराजनन्दिनी ने उस वन में झुंड के झुंड भैंसे, सूअर, रीछ और जंगली सांप देखे। तेज, यश, शोभा और परम धैर्य से युक्त विदर्भकुमारी उस समय अकेली विचरती और नल को ढूंढती थी। वह पति के विरहरूपी संकट से संतप्त थी। अतः राजकुमारी दमयन्ती उस भयंकर वन में प्रवेश करके भी किसी जीव-जन्तु से भयभीत नहीं हुई।

राजन्! विदर्भकुमारी दमयन्ती के अंग-अंग में पति के वियोग का शोक व्याप्त हो गया था, इसलिये वह अत्यन्त दुःखित हो एक शिला के नीचे भाग में बैठकर बहुत विलाप करने लगी। दमयन्ती बोली- 'चौड़ी छाती वाले महाबाहु निषध नरेश महाराज! आज इस निर्जन वन में (मुझ अकेली को) छोड़कर आप कहाँ चले गये? नरश्रेष्ठ! वीरशिरोमणे! प्रचुर दक्षिणा वाले अश्वमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठान करके भी आप मेरे साथ मिथ्या बर्ताव क्यों कर रहे हैं? महातेजस्वी कल्याणमय राजाओं में उत्तम नरश्रेष्ठ! आपने मेरे सामने जो बात कही थी, अपनी उस बात का स्मरण करना उचित है। भूमिपाल! आकाशचारी हंसों ने आपके समीप तथा मेरे सामने जो बातें कही थीं, उन पर विचार कीजिये। नरसिंह! एक ओर अंग और उपांगों सहित विस्तारपूर्वक चारों वेदों का स्वाध्याय हो और दूसरी ओर केवल सत्यभाषण हो तो वह निश्चय ही उससे बढ़कर है। अतः शत्रुहन्ता नरेश्वर! वीर! आपने पहले मेरे समीप जो बातें कहीं हैं, उसे सत्य कहना चाहिये।

हा निष्पाप वीर नल! आपकी मैं दमयन्ती इस भयंकर वन में नष्ट हो रही हूं, आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते? यह भयानक आकृति वाला क्रूर सिंह भूख से पीड़ित हो मुंह बाये खड़ा है और मुझ पर आक्रमण करना चाहता है, क्या आप मेरी रक्षा नहीं कर सकते? कल्याणमय नरेश! आप पहले जो सदा यह कहते थे कि तुम्हारे सिवा दूसरी कोई भी स्त्री मुझे प्रिय नहीं है, अपनी उस बात को सत्य कीजिये। महाराज! मैं आपकी प्रिय पत्नी हूँ और आप मेरे प्रियतम पति हैं, ऐसी दशा में भी मैं यहाँ उन्मत्त विलाप कर रहीं हूँ तो भी आप मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देते?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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