सप्तदशाधिकद्विशततम (217) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अमित पराक्रमी अर्जुन क्रमशः अपरान्त (पश्चिम समुद्र तटवर्ती) देश के समस्त पुण्य तीर्थों और मन्दिरों में गये। पश्चिम समुद्र के तट पर जितने तीर्थ और देवालय थे, उन सबकी यात्रा करके वे प्रभास क्षेत्र में जा पहुँचे। भगवान् श्रीकृष्ण ने गुप्तचरों द्वारा यह सुना कि किसी से परास्त न होने वाले अर्जुन परमपवित्र एवं रमणीय प्रभास क्षेत्र में आ गये हैं, तब वे अपने सखा कुन्तीनन्दन से मिलने के लिये वहाँ गये। उस समय प्रभास में श्रीकृष्ण और अर्जुन ने एक-दूसरे को देखा। दोनों ही दोनों को हृदय से लगाकर कुशल प्रश्न पूछने के पश्चात् वे परस्पर प्रिय मित्र साक्षात् नर-नारायण ऋषि वन में एक स्थान पर बैठ गये। तब भगवान् वासुदेव ने अर्जुन से उनकी जीवनचर्या के सम्बन्ध में पूछा- ‘पाण्डव! तुम किसलिये तीर्थों में विचर रहे हो?’ यह सुनकर अर्जुन ने उन्हें सारा वृत्तान्त ज्यों का त्यों सुना दिया। सब कुछ सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण बोले- ‘यह बात ऐसी ही है।’ तदनन्तर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों प्रभास क्षेत्र में इच्छानुसार घूम फिरकर रैवतक पर्वत पर चले गये। उन्हें रात को वहीं ठहरना था। भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से उनके सेवकों ने पहले से ही आकर उस पर्वत को सजा रखा था और वहाँ भोजन भी तैयार करके रख लिया था। पाण्डुकुमार अर्जुन से भगवान् वासुदेव के साथ प्रस्तुत किये हुए सम्पूर्ण भोज्य पदार्थों को यथारुचि खाकर नटों और नर्तकों के नृत्य देखे। तत्पश्चात् उन सबको उपहार आदि से सम्मानित करके जाने की आज्ञा दे महाबुद्धिमान् पाण्डुकुमार अर्जुन सत्कारपूर्वक बिछी हुई दिव्य शय्या पर सोने के लिये गये। वहाँ सुन्दर शय्या पर सोये हुए महाबाहु धनंजय ने भगवान् श्रीकृष्ण से अनेक तीर्थों, कुण्डों, पर्वतों, नदियों तथा वनों के दर्शन सम्बन्धी अनुभव की विचित्र बातें कहीं। जनमेजय! इस प्रकार बात करते-करते अर्जुन उस स्वर्गसदृश्य सुखदायिनी शय्या पर सो गये। तदनन्तर प्रातःकाल मधुर गीत, बीणा की मीठी ध्वनि, स्तुति और मंगलपाठ के शब्दों द्वारा जगाये जाने पर उनकी नींद खुली। तत्पश्चात् आवश्यक कार्य करके श्रीकृष्ण के द्वारा अभिनन्दित हो उनके साथ सुवर्णमय रथ पर बैठकर वे द्वारकापुरी को गये। जनमेजय! उस समय कुन्तीकुमार के स्वगात के लिये समूची द्वारकापुरी सजायी गयी थी तथा वहाँ के घरों के बगीचे तक सजाये गये थे। कुन्तीनन्दन अर्जुन को देखने के लिये द्वारकावासी मनुष्य लाखों की संख्या में मुख्य सड़क पर चले आये थे। जहाँ से अर्जुन का दर्शन हो सके, ऐसे स्थानों पर सैकड़ों हजारों स्त्रियाँ आँख लगाये खड़ी थी तथा भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के पुरुषों की बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हो गयी थी। भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के सब लोगों द्वारा इस प्रकार आदर सत्कार पाकर अर्जुन ने वन्दनीय पुरुषों को प्रणाम किया और उन सबने उनका स्वागत किया। यदुकुल के समस्त कुमारों ने भी वीरवर अर्जुन का बड़ा सत्कार किया। अर्जुन अपने समान अवस्था वाले सब लोगों से उन्हें बारंबार हृदय से लगाकर मिले। इसके बाद नाना प्रकार के रत्न तथा भाँति-भाँति के भोज्य पदार्थों से भरपूर श्रीकृष्ण के रमणीय भवन में उन्होंने श्रीकृष्ण के साथ ही अनेक रात्रियों तक निवास किया। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत अर्जुन वनवास पर्व में अर्जुन का द्वारकागमन विषयक दो सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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