चतुर्नवतितम (94) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चतुर्नवतितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर बोले- देवर्षिप्रवर लोमश! मेरी समझ से मैं अपने को सात्त्विक गुणों से हीन नहीं मानता तो भी दु:खों से इतना संतप्त होता रहता हूं, जितना दूसरा कोई राजा नहीं हुआ होगा। इसके सिवा, दुर्योधन आदि शत्रुओं को सात्त्विक गुणों से रहित समझता हूँ। साथ ही यह भी जानता हूँ कि वे धर्म परायण नहीं हैं तो भी वे इस लोक में उतरोत्तर समृद्धिशाली होते जा रहे हैं, इसका क्या कारण है। लोमश जी ने कहा- राजन्! कुन्तीनन्दन! अधर्म में रुचि रखने वाले लोग यदि उस अधर्म के द्वारा बढ़ रहे हों तो इसके लिये तुम्हें किसी प्रकार दु:ख नहीं मानना चाहिये। पहले अधर्म द्वारा मनुष्य बढ़ सकता है, फिर अपने मनोनुकूल सुख सम्पतिरूप अभ्युदय को देख सकता है, तत्पश्चात वह शत्रुओं पर विजय पा सकता है और अन्त में जड़-मूल सहित नष्ट हो जाता है। महीपाल! मैंने दैत्यों और दानवों को अधर्म के द्वारा बढ़ते और पु:न नष्ट होते भी देखा है। प्रभो! पहले देवयुग में ही मैंने यह सब अपनी आंखों से देखा है। देवताओं ने धर्म के प्रति अनुराग किया और असुरों ने उसका परित्याग कर दिया। भरतनन्दन! देवताओं ने स्नान के लिये तीर्थों में प्रवेश किया, परंतु असुर उनमें नहीं गये। अधर्मजनित दर्प असुरों में पहले से ही समा गया था। दर्प से मान हुआ और मान से क्रोध उत्पन्न हुआ। क्रोध से से निर्लज्जता आयी और निर्लज्जता ने उनके सदाचार को नष्ट कर दिया। इस प्रकार लज्जा, संकोच और सदाचार से हीन एवं निष्फल व्रत का आचरण करने वाले उन असुरों को क्षमा, लक्ष्मी और स्वधर्म ने शीघ्र त्याग दिया। राजन्! लक्ष्मी देवताओं के पास चली गयी और अलक्ष्मी असुरों के यहां। अलक्ष्मी के आवेश से युक्त होने पर उनका चित्त दर्प और अभिमान से दूषित हो गया। उस दशा में उन दैत्यों और दानवों में कलि का भी प्रवेश हो गया। जब वे दानव अलक्ष्मी से संयुक्त, कलि से तिरस्कृत और अभिमान से अभिभूत हो सत्कर्मों से शून्य, विवेकरहित और मान से उन्मत हो गये, तब शीघ्र ही उनका विनाश हो गया। यशोहीन दैत्य पूर्णत: नष्ट हो गये। किंतु धर्मशील देवताओं ने पवित्र समुद्रों, सरिताओं, सरोवरों और पुण्यप्रद आश्रमों की यात्रा की। पाण्डुनन्दन! वहाँ तपस्या, यज्ञ और दान आदि करके महात्माओं के आशीर्वाद से वे सब पापों से मुक्त हो कल्याण के भागी हुए। इस प्रकार उत्तम नियम ग्रहण करके किसी से भी कोई प्रतिग्रह न लेकर देवताअ ने तीर्थों में विचरण किया। इससे उन्हें उत्तम ऐश्वर्य की प्राप्ती हुई। नृपश्रेष्ठ! जहाँ राजा धर्म के अनुसार बर्ताव करते हैं, वहाँ वे सब शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं और उनका राज्य भी बढ़ता रहता है। राजेन्द्र! इसलिये तुम भी भाइयों सहित तीर्थों में स्नान करके खोयी हुई राजलक्ष्मी प्राप्त कर लोगे, यही सनातन मार्ग है। जैसे राजा नृग, उशीनरपुत्र शिबि, भगीरथ, वसुमना, गय, पूरू तथा पुरूरवा आदि नरेशों ने सदा तपस्यापूर्वक तीर्थयात्रा करके वहाँ के जल के स्पर्श और महात्माओं के दर्शन से पावन यश और प्रचुर धन प्राप्त किये थे, उसी प्रकार तुम भी तीर्थयात्रा के पुण्य से विपुल सम्पति प्राप्त कर लोगे। जैसे पुत्र, सेवक तथा बन्धु-बान्धवों सहित राजा इक्ष्वाकु, मुचुकुन्द, मान्धाता तथा महाराज मरुत्त ने पुण्यकीर्ति प्राप्त की थी, जैसे देवताओं और देवर्षियों ने तपोबल से यश और ऐश्वर्य प्राप्त किया था, उसी प्रकार तुम भी पूर्णरूप से धन-सम्पति प्राप्त करोगे। धृतराष्ट्र के पुत्र पाप और मोह के वशीभूत हैं, अत: वे दैत्यों की भाँति शीघ्र नष्ट हो जायेंगे, इसमें संशय नहीं है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमश तीर्थयात्रा विषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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