महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 44 श्लोक 1-12

चतुश्चत्‍वारिंश (44) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: चतुश्चत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरूपण

  • धृतराष्‍ट्र ने कहा- सनत्सुजातजी! आप जिस सर्वोत्तम और सर्वरूपा ब्रह्म सम्बन्धिनी विद्या का उपदेश कर रहे हैं, कामी पुरुषों के लिये वह अत्यन्त दुर्लभ है। कुमार! मेरा तो यह कहना है कि आप इस उत्कृष्‍ट विषय का पुन: प्रतिपादन करें। (1)
  • सनत्सुजात ने कहा- राजन! तुम जो मुझसे बारंबार प्रश्‍न करते समय अत्यन्त हर्षित हो उठते हो, सो इस प्रकार जल्दबाजी करने से ब्रह्म की उपल‍ब्धि नहीं होती। बुद्धि में मन के लय हो जाने पर सब वृत्तियों का विरोध करने वाली जो स्थिति है, उसका नाम है ब्रह्मविद्या और वह ब्रह्मचर्य का पालन करने से ही उपलब्ध होती है। (2)
  • धृतराष्‍ट्र ने कहा- जो कर्मों द्वारा आरम्भ होने योग्य नहीं है तथा कार्य के समय में भी जो इस आत्मा में ही रहती है, उस अनन्त ब्रह्म से सम्बन्ध रखने वाली इस सनातन विद्या को यदि आप ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त होने योग्य बता रहे हैं तो मुझ जैसे लोग ब्रह्म सम्बन्धी अमृतत्त्व[1]को कैसे पा सकते हैं? (3)
  • सनत्सुजातजी बोले- अब मैं [2] अव्यक्त ब्रह्म से सम्बन्ध रखने वाली उस पुरातन विद्या का वर्णन करूंगा, जो मनुष्‍यों को बुद्धि और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त होती है, जिसे पाकर विद्वान पुरुष इस मरणधर्मा शरीर को सदा के लिये त्याग देते हैं तथा जो वृद्ध गुरुजनों में नित्य विद्यमान रहती है। (4)
  • धृतराष्‍ट्र ने कहा- ब्र‍ह्मन! यदि वह ब्रह्मविद्या ब्रह्मचर्य के द्वारा ही सुगमता से जानी जा सकती है तो पहले मुझे यही बताइये कि ब्रह्मचर्य का पालन कैसे होता है? (5)
  • सनत्सुजातजी बोले- जो लोग आचार्य के आश्रम में प्रवेश कर अपनी सेवा से उनके अन्तरंग भक्त हो ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे यहाँ शास्त्राकार हो जाते हैं और देह-त्याग के पश्‍चात परम योगरूप परमात्मा को प्राप्त होते हैं। (6)
  • इस जगत में जो लोग वर्तमान स्थिति में रहते हुए ही सम्पूर्ण कामनाओं को जीत लेते हैं और ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करने के लिये ही नाना प्रकार के द्वन्द्वों को सहन करते हैं, वे सत्त्वगुण में स्थित हो यहाँ ही मूंज से सींक की भाँति इस देह से आत्मा को (विवेक द्वारा) पृथक कर लेते हैं। (7)
  • भारत! यद्यपि माता और पिता- ये ही दोनों इस शरीर को जन्म देते हैं, तथापि आचार्य के उपदेश से जो जन्म प्राप्त होता है, वह परम पवित्र और अजर-अमर है। (8)
  • जो परमार्थ तत्त्व के उपदेश से सत्य को प्रकट करके अमरत्व प्रदान करते हुए ब्राह्मणादि वर्णों की रक्षा करते हैं, उन आचार्य को पिता-माता ही समझना चाहिये तथा उनके किये हुए उपकार का स्मरण करके कभी उनसे द्रोह नहीं करना चाहिये। (9)
  • ब्रह्मचारी शिष्‍य को चाहिये कि वह नित्य गुरु को प्रणाम करे, बाहर-भीतर से पवित्र हो प्रमाद छोड़कर स्वाध्‍याय में मन लगावे, अभिमान न करे, मन में क्रोध को स्थान न दे। यह ब्रह्मचर्य का पहला चरण है। (10)
  • जो शिष्‍य की वृत्ति के क्रम से ही जीवन-निर्वाह करता हुआ पवित्र हो विद्या प्राप्त करता है, उसका यह नियम भी ब्रह्मचर्य व्रत का पहला ही पाद कहलाता है। (11)
  • अपने प्राण और धन लगाकर भी मन, वाणी तथा कर्म से आचार्य का प्रिय करे, यह दूसरा पाद कहलाता है। (12)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मोक्ष
  2. सच्चिदानन्दन

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