महाभारत आदि पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-17

पंचत्‍वारिंश (45) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व:पंचत्‍वारिंश अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
जरत्कारु को अपने पितरों का दर्शन और उनसे वार्तालाप

उग्रश्रवा जी कहते हैं- इन्हीं दिनों की बात है, महातपस्वी जरत्कारु मुनि सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते थे। उन महातेजस्वी महर्षि ने ऐसे कठोर नियमों की दीक्षा ले रखी थी, जिनका पालन करना दूसरे अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये सर्वथा कठिन था। वे पवित्र तीर्थों में स्नान करते हुए विचर रहे थे। वे मुनि वायु पीते और निराहार रहते थे; इसलिये दिन पर दिन सूखते चले जाते थे। एक दिन उन्होंने पितरों को देखा, जो नीचे मुँह किये एक गड्ढे में लटक रहे थे। उन्होंने खश नामक तिनकों के समूह को पकड़ रखा था, जिसकी जड़ में केवल एक तन्तु बच गया था। उस बचे हुए तन्तु को भी वहीं बिल में रहने वाला एक चूहा धीरे-धीरे खा रहा था। वे पितर निराहार, दीन और दुर्बल हो गये थे और चाहते थे कि कोई हमें इस गड्ढे में गिरने से बचा ले। जरत्कारु उनकी दयनीय दशा देखकर दया से द्रवित हो स्वयं भी दीन हो गये और उन दीन-दुखी पितरों के समीप जाकर बोले- ‘आप लोग कौन हैं जो खश के गुच्छे के सहारे लटक रहे हैं? इस खश की जड़ें यहाँ बिल में रहने वाले चूहे ने खा डाली हैं, इसलिये यह बहुत कमज़ोर हैं। खश के इस गुच्छे में जो मूल का एक तन्तु यहाँ बचा है, उसे भी यह चूहा अपने तीखे दाँतो से धीरे-धीरे कुतर रहा है। उसका स्वल्प भाग शेष है, वह भी बात-की-बात में कट जायेगा। फिर तो आप लोग नीचे मुँह किये निश्चय ही इस गड्ढे़ में गिर जायेंगे।

आपको इस प्रकार नीचे मुँह किये लटकते देख मेरे मन में बड़ा दुःख हो रहा हैं। आप लोग बड़ी कठिन विपत्ति में पड़े हैं। मैं आप लोगों का कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? आप लोग मेरी इस तपस्या के चौथे, तीसरे अथवा आधे भाग के द्वारा भी इस विपत्ति से बचाये जा सकें तो शीघ्र बतलावें। अथवा मेरी सारी तपस्या के द्वारा भी यदि आप सभी लोग यहाँ इस संकट से पार हो सकें तो भले ही ऐसा कर लें।' पितरों ने कहा- विप्रवर! आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, जो यहाँ हमारी रक्षा करना चाहते हैं; किंतु हमारा संकट तपस्या से नहीं टाला जा सकता। तात! तपस्या का बल तो हमारे पास भी है। वक्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण! हम तो वंशपम्परा का विच्छेद होने के कारण अपवित्र नरक में गिर रहे हैं। ब्रह्मा जी का वचन है कि संतान ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। तात! यहाँ लटकते हुए हम लोगों की सुध-बुध प्रायः खो गयी है, हमें कुछ ज्ञात नहीं होता। इसीलिये लोक में विख्यात पौरुष वाले आप जैसे महापुरुष को हम पहचान नहीं पा रहे हैं। आप कोई महान सौभाग्यशाली महापुरुष हैं, जो अत्यन्त दुःख में पड़े हुए हम जैसे शोचनीय प्राणियों के लिये करुणावश शोक कर रहे हैं। ब्रह्मन! हम लोग कौन हैं इसका परिचय देते हैं, सुनिये। हम अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक महर्षि हैं। मुने! वंशपरम्परा का क्षय होने के कारण हमें पुण्यलोक से भ्रष्ट होना पड़ा है। हमारी तीव्र तपस्या नष्ट हो गयी; क्योंकि हमारे कुल में अब कोई संतति नहीं रह गयी है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः