चत्वारिंश (40) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
महाभारत: शल्य पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! प्राचीन काल की सत्य युग की बात है, द्विज आर्ष्टिषेण सदा गुरुकुल में निवास करते हुए निरन्तर वेद-शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते थे। प्रजानाथ! नरेश्वर! गुरुकुल में सर्वदा रहते हुए भी न तो उनकी विद्या समाप्त हुई और न वे सम्पूर्ण वेद ही पढ़ सके। नरेश्वर! इससे महातपस्वी आर्ष्टिषेण खिन्न एवं विरक्त हो उठे, फिर उन्होंने सरस्वती के उसी तीर्थ में जाकर बड़ी भारी तपस्या की। उस तप के प्रभाव से उत्तम वेदों का ज्ञान प्राप्त करके वे ऋषिश्रेष्ठ विद्वान वेदज्ञ और सिद्ध हो गये। तदनन्तर उन महातपस्वी ने उस तीर्थ को तीन वर प्रदान किये- ‘आज से जो मनुष्य महानदी सरस्वती के इस तीर्थ में स्नान करेगा, उसे अश्वमेध यज्ञ का सम्पूर्ण फल प्राप्त होगा। आज से इस तीर्थ में किसी को सर्प से भय नहीं होगा। थोड़े समय तक ही इस तीर्थ के सेवन से मनुष्य को बहुत अधिक फल प्राप्त होगा’। ऐसा कह कर वे महातेजस्वी मुनि स्वर्ग लोक को चले गये। इस प्रकार पूजनीय एवं प्रतापी आर्ष्टिषेण ऋषि उस तीर्थ में सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। महाराज! उन्हीं दिनों उसी तीर्थ में प्रतापी सिन्धुद्वीप तथा देवापि ने वहाँ तप करके महान ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। तात! कुशिकवंशी विश्वामित्र भी वहीं निरन्तर इन्द्रिय संयमपूर्वक तपस्या करते थे। उस भारी तपस्या के प्रभाव से उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई। राजन! पहले इस भूतल पर गाधि नाम से विख्यात महान क्षत्रिय राजा राज्य करते थे। प्रतापी विश्वामित्र उन्हीं के पुत्र थे। तात! लोग कहते हैं कि कुशिकवंशी राजा गाधि महान योगी और बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने अपने पुत्र विश्वामित्र को राज्य पर अभिषिक्त करके शरीर को त्याग देने का विचार किया। तब सारी प्रजा उनसे नतमस्तक होकर बोली- ‘महाबुद्धिमान नरेश! आप कहीं न जायं, यहीं रहकर हमारी इस जगत के महान भय से रक्षा करते रहें’। उनके ऐसा कहने पर गाधि ने सम्पूर्ण प्रजाओं से कहा- ‘मेरा पुत्र सम्पूर्ण जगत की रक्षा करने वाला होगा (अतः तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये)’। राजन यों कहकर राजा गाधि विश्वामित्र को राज सिंहासन पर बिठा कर स्वर्ग लोक को चले गये। तत्पश्चात विश्वामित्र राजा हुए। वे प्रयत्नशील होने पर भी सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा नहीं कर पाते थे। एक दिन राजा विश्वामित्र ने सुना कि ‘प्रजा को राक्षसों से महान भय प्राप्त हुआ है’। तब वे चतुरंगिणी सेना लेकर नगर से निकल पड़े और दूर तक का रास्ता तय करके वसिष्ठ के आश्रम के पास जा पहुँचे। राजन! उनके उन सैनिकों ने वहाँ बहुत से अन्याय एवं अत्याचार किये। तदनन्तर पूज्य ब्रह्मर्षि वसिष्ठ कहीं से अपने आश्रम पर आये। आकर उन्होंने देखा कि वह सारा विशाल वन उजाड़ होता जा रहा है। महाराज! यह देख कर मुनिवर वसिष्ठ राजा विश्वामित्र पर कुपित हो उठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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