महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-21

एकोनविंश (19) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
द्रोणाचार्य के द्वारा गरुड़व्‍यूह का निर्माण, युधिष्ठिर का भय, धृष्‍टद्युम्न का आश्‍वासन, धृष्‍टद्युम्न और दुर्मुख का युद्ध तथा संकुल युद्ध में गजसेना का संहार
  • संजय कहते हैं– राजेन्‍द्र! महारथी द्रोणाचार्य ने वह रात बिताकर दुर्योधन से बहुत कुछ बातें कहीं और संशप्‍तकों के साथ अर्जुन के युद्ध का योग लगा दिया। भरतश्रेष्‍ठ! फिर संशप्‍तकों का वध करने के लिये अर्जुन जब दूर निकल गये, तब सेना की व्‍यूहरचना करके धर्मराज युधिष्ठिर को पकड़ने के लिये द्रोणाचार्य ने पाण्‍डवों की विशाल सेना पर आक्रमण किया। (1-3)
  • द्रोणाचार्य के बनाये हुए गरुड़ व्यूह को देखकर युधिष्ठिर ने अपनी सेना का मण्‍डलार्धव्‍यूह बनाया। (4)
  • गरुड़व्‍यूह में गरुड़ के मुँह के स्‍थान पर महारथी द्रोणाचार्य खड़े थे। शिरोभाग में भाइयों तथा अनुगामी सैनिकों सहित राजा दुर्योधन उपस्थित हुआ। बाण चलाने वालों में श्रेष्‍ठ कृपाचार्य और कृतवर्मा उस व्‍यूह की आँख के स्‍थान में स्थित हुए। (5)
  • भूतशर्मा, क्षेमशर्मा, पराक्रमी करकाश, कलिंग, सिंहल, पूर्व दिशा के सैनिक, शूर आभीरगण, दाशेरकगण, शक, यवन, काम्‍बोज, शूरसेन, दरद, मद्र, केकय तथा हंस पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरवीर एवं हाथी सवार, घुड़सवार, रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्‍तम कवच धारण करके उस गरुड़ के ग्रीवा भाग में खड़े थे। (6-7)
  • भूरिश्रवा, शल्‍य, सोमदत्त तथा बाह्लिक- ये वीरगण अक्षौहिणी सेना के साथ व्‍यूह के दाहिने पार्श्‍व में स्थित थे। (8)
  • अवंती के विन्‍द और अनुविन्‍द तथा काम्‍बोजराज सुदक्षिण ये बाये पार्श्‍व का आश्रय लेकर द्रोणपुत्र अश्‍वत्‍थामा के आगे खड़े हुए। (9)
  • पृष्‍ठभाग में कलिंग, अम्बष्ठ , मगध, पौण्‍ड्र, मद्रक, गन्धार , शकुन, पूर्वदेश, पर्वतीय प्रदेश और वसाति आदि देशों के वीर थे। (10)
  • पुच्‍छभाग में अपने पुत्र, जाति-भाई तथा कुटुम्‍ब के बन्‍धु-बान्‍धवों सहित भिन्‍न-भिन्‍न देशों की विशाल सेना साथ लिये विकर्तनपुत्र कर्ण खड़ा था। (11)
  • राजन! उस व्‍यूह के हृदयस्‍थान में जयद्रथ, भीमरथ, सम्‍पाति, ऋषभ, जय, भूमिंजय, वृषक्राथ तथा महाबली निषधराज बहुत बड़ी सेना के साथ खड़े थे। ये सब-के-सब ब्रह्मलोक की प्राप्ति को लक्ष्‍य बनाकर लड़ने वाले तथा युद्ध की कला में अत्‍यन्‍त निपुण थे। (12-13)
  • इस प्रकार पैदल, अश्‍वारोही, गजारोही तथा रथियों द्वारा आचार्य द्रोण का बनाया हुआ वह व्‍यूह वायु के झकोरों से उछलते हुए समुद्र के समान दिखायी देता था। (14)
  • उसके पक्ष और प्रपक्ष भागों से युद्ध की इच्‍छा रखने वाले योद्धा उसी प्रकार निकलने लगे, जैसे वर्षाकाल में विद्युत से प्रकाशित गर्जते हुए मेघ सम्‍पूर्ण दिशाओं से प्रकट होने लगते हैं। (15)
  • राजन! उस व्‍यूह के मध्‍यभाग में विधिपूर्वक सजाये हुए हाथी पर आरूढ़ हो प्राग्‍ज्‍योतिषपुर के राजा भगदत्त उदयाचल पर प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव के समान सुशोभित हो रहे थे। (16)
  • राजन! सेवकों ने राजा भगदत्त के ऊपर मुक्‍ता मालाओं से अलंकृत श्‍वेत छत्र लगा रक्‍खा था। उनका वह छत्र कृतिका नक्षत्र के योग से युक्‍त पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति शोभा दे रहा था। (17)
  • राजा का काली कज्‍जल-राशि के समान मदान्‍ध गजराज अपने मस्‍तक की मदवर्षा के कारण महान मेघों की अतिवृष्टि से आर्द्र हुए विशाल पर्वत के समान शोभा पा रहा था। (18)
  • जैसे इन्‍द्र देवगणों से घिरकर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार भाँति-भाँति के आयुधों और आभूषणों से विभूषित, वीर एवं बहुसंख्‍यक पर्वतीय नृपतियों से घिरे हुए भगदत्‍त की बड़ी शोभा हो रही थी। (19)
  • राजा युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य के रचे हुए उस अलौकिक तथा शत्रुओं के लिये अजेय व्‍यूह को देखकर युद्धस्‍थल में धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा- 'कबूतर के समान रंगवाले घोड़ों पर चलने वाले वीर! आज तुम ऐसी नीति का प्रयोग करो, जिससे मैं उस ब्राह्मण के वश में न होऊँ।' (20-21)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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