षष्ट्यधिकशततम (160) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: षष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
‘राजन! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि पाण्डवों के जीते जी उनकी सेना को बलपूर्वक जीतना असम्भव है। ‘भरतनन्दन! पाण्डव शक्तिशाली हैं और अपने लिये युद्ध करते हैं, फिर वे किस लिये तुम्हारी सेनाओं का संहार नहीं करेंगे। ‘कौरव नरेश! तुम तो लोभी और छल-कपट की विद्या को जानने वाले हो। सब पर संदेह करने वाले और अभिमानी हो, इसीलिये हम लोगों पर भी शंका करते हो। ‘राजन! मेरी मान्यता है कि तुम निन्दित, पापात्मा एवं पाप पुरुष हो।’ क्षुद्र नरेश! तुम्हारा अन्तःकरण पाप भावना से ही पूर्ण है, इसीलिये तुम हम पर तथा दूसरों पर भी संदेह करते हो। ‘कुरूनन्दन! मैं अभी तुम्हारे लिये जीवन का मोह छोड़कर पूरा प्रयत्न करके संग्राम-भूमि में जा रहा हूँ। ‘शत्रुदमन! मैं शत्रुओं के साथ युद्ध करूँगा और उनके प्रधान-प्रधान वीरों पर विजय पाऊँगा। संग्राम भूमि में तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैं पांचालों, सोमकों, केकयों तथा पाण्डवों के साथ भी युद्ध करूँगा। ‘आज पांचाल और सोमक योद्धा मेरे बाणों से दग्ध होकर सिंह से पीड़ित हुई गौओं के समान सब ओर भाग जायेंगे। ‘आज सोमको सहित धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरा पराक्रम देखकर सम्पूर्ण जगत को अश्वत्थामा से भरा हुआ मानेंगे। ‘सोमकों सहित पांचालों को युद्ध में मारा गया देख आज धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के मन में बड़ा निर्वेद खेद एवं वैराग्य होगा। ‘भारत! जो लोग रणभूमि में मेरे साथ युद्ध करेंगे, उन्हें मैं मार डालूँ। वीर! मेरी भुजाओं के भीतर आकर शत्रु सैनिक जीवित नहीं छूट सकेंगे’। आपके पुत्र दुर्योधन से ऐसा कहकर महाबाहु अश्वत्थामा समस्त धनुर्धरों को त्रास देता हुआ युद्ध के लिये शत्रुओं के सामने डट गया। प्राणियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा आपके पुत्रों का प्रिय करना चाहता थ। तदनन्तर गौतमी नन्दन अश्वत्थामा ने केकयों सहित पांचालों से कहा- ‘महारथियों! अब सब लोग मिलकर मेरे शरीर पर प्रहार करो और अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखाते हुए सुस्थिर होकर युद्ध करो’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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