अष्टाविंश (28) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद सगुण भगवान् के प्रभाव, निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा का वर्णन करते हुए विविध यज्ञों एवं ज्ञान की महिमा का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4
हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग[1] को राजर्षियों ने जाना; किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया।[2] तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातनयोग आज मैंने तुझको कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है।[3] अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात् कल्प के आदि में हो चुका था; तब मैं इस बात को कैसे समझूँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था? श्रीभगवान् बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं।[4] उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ। संबंध- भगवान् के मुख से यह बात सुनकर कि अब तक मेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं, यह जानने की इच्छा होती है कि आपका जन्म किस प्रकार होता है और आपके जन्म में तथा अन्य लोगों कि जन्म में क्या भेद है। अतएव इस बात को समझाने के लिये भगवान् अपने जन्म का तत्त्व बतलाते हैं- मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृत्ति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।[5] संबंध-इस प्रकार भगवान् के मुख से उनके जन्म का तत्त्व सुनने पर यह जिज्ञासा होती है कि आप किस-किस समय और भगवान् दो श्लोकों में अपने अवतार के अवसर, हेतु और उद्देश्य बतलाते हैं- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है[6] तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकाररूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। साधु[7] पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-कर्म[8] करने-वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये[9] मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।[10] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता के दूसरे अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कर्मयोग का वर्णन आरम्भ करने की प्रतिज्ञा करके भगवान् ने उस अध्याय के अंत तक कर्मयोग का ही भलीभाँति प्रतिपाद किया। उसके बाद भी तीसरे अध्याय के अंत तक प्राय: कर्मयोग का ही अंग प्रत्यंगोसहित प्रतिपादन किया गया। इसके सिवा इस योग की परम्परा बतलाते हुए भगवान् ने यहाँ जिन ‘सूर्य’ और ‘मनु’ आदि के नाम गिनाये हैं, वे सभी गृहस्थ और कर्मयोगी ही है। इससे भी यहाँ ‘योगम्’ पद को कर्मयोग का ही वाचक मानना उपयुक्त मालूम होता है।
- ↑ परमात्मा की प्राप्ति के साधनरूप कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं-सभी नित्य हैं; इनका कभी अभाव नहीं होता। जब परमेश्वरनित्य हैं, तब उनकी प्राप्ति के लिये उन्हीं के द्वारा निश्चित किये हुए अनादि नियम अनित्य नहीं हो सकते। जब-जब जगत् का प्रादुर्भाव होता है, तब-तब भगवान् के समस्त नियम भी साथ-ही-साथ प्रकट हो जाते हैं और जब जगत् का प्रलय होता है, उस समय नियमों का भी तिरोभाव हो जाता है; परंतु उनका अभाव कभी नहीं होता। इस प्रकार इस कर्मयोग की अनादिता सिद्ध करने के लिये पूर्वश्लोक में उसे अविनाशी कहा गया है। अतएव इस श्लोक में जो यह बात कही गयी कि वह योग बहुत काल से नष्ट हो गया है- इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि बहुत समय से इस पृथ्वी लोक में उसका तत्त्व समझने वाले श्रेष्ठ पुरुषों का अभाव-सा हो गया है, इस कारण वह अप्रकाशित हो गया है, उसका इस लोक में तिरोभाव हो गया है; यह नहीं कि उसका अभाव हो गया है।
- ↑ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह योग सब प्रकार के दु:खों से और बंधनों से छुड़ाकर परमानंदस्वरूप मुझ परमेश्वर को सुगमतापूर्वक प्राप्त करा देने वाला है, इसलिये अत्यंत ही उत्तम ओर बहुत ही गोपनीय है; इसके सिवा इसका यह भाव भी है कि अपने को सूर्यादि के प्रति इस योग का उपदेश करने वाला बतलाकर और वही योग मैंने तुझसे कहा है, तू मेरा भक्त है- यह कहकर मैंने जो अपना ईश्वर भाव प्रकट किया है, यह बड़े रहस्य की बात है।
- ↑ यहाँ भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैं और तुम अभी हुए हैं, पहले नहीं थे- ऐसी बात नहीं है। हम लोग अनादि और नित्य हैं। मेरा नित्य स्वरूप तो है ही; उसके अतिरिक्त मैं अनेक रूपों में पहले प्रकट हो चुका हूं। इसलिये मैंने जो यह बात कही है कि यह योग पहले सूर्य से मैंने ही कहा था, इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि कल्प के आदि में मैंने नारायण रूप से सूर्य को यह योग कहा था।
- ↑ इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूं-वास्तव में मेरा जन्म और विनाश कभी नहीं होता है, तो भी मैं साधारण व्यक्ति की भाँति जन्मता और विनष्ट होता-सा प्रतीत होता हूं; इसी तरह समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी एक साधारण व्यक्ति-सा ही प्रतीत होता हूँ। अभिप्राय यह है कि मेरे अवतार-तत्त्व को न समझने वाले लोग जब मैं मत्स्य, कच्छप, वाराह और मनुष्यादि रूप में प्रकट होता हूं, तब मेरा जन्म हुआ मानते है और जब मैं अंतर्धान हो जाता हूं, उस समय मेरा विनाश समझ लेते हैं तथा जब मैं उस रूप में दिव्य लीला करता हूं, तब मुझे अपने जैसा ही साधारण व्यक्ति समझकर मेरा तिरस्कार करते हैं। (गीता 1।11) वे बेचारे इस बात को नहीं समझ पाते कि ये सर्वशक्तिमान्, सर्वेश्वर, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त–स्वभाव साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा ही जगत् का कल्याण करने के लिये इस रूप में प्रकट होकर दिव्य लीला कर रहे हैं; क्योंकि मैं उस समय अपनी योगमाया के परदे में छिपा रहता हूँ। (गीता 7।25)
- ↑ ऋषिकल्प, धार्मिक, ईश्वरप्रेमी, सदाचारी पुरुषों तथा निरपराधी, निर्बल प्राणियों पर बलवान् और दुराचारी मनुष्यों का अत्याचार बढ़ जाना तथा उसके कारण लोगों में सद्गुणों और सदाचार का अत्यंत ह्रास होकर दुर्गुण और दुराचार का अधिक फैल जाना ही धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि का स्वरूप है।
- ↑ जो पुरुष अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि समस्त सामान्य धर्मों का तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्यापन, प्रजापालन आदि अपने-अपने वर्णाश्रम-धर्मों का भलीभाँति पालन करते हैं; दूसरों का हित करना ही जिनका स्वभाव है; जो सद्गुणों के भण्डार और सदाचारी हैं तथा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीलादि के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि करने वाले भक्त हैं- उनका वाचक यहाँ 'साधु' शब्द है।
- ↑ जो मनुष्य निरपराध, सदाचारी ओर भगवान् के भक्तों पर अत्याचार करने वाले हैं, जो झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि दुर्गुण और दुराचारों के भण्डार हैं, जो नाना प्रकार से अन्याय करके धन का संग्रह करने वाले तथा नास्तिक है; भगवान् और वेद-शास्त्रों का विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है- ऐसे आसुर स्वभाव वाले दुष्ट पुरुषों का वाचक यहाँ ‘दृष्कृताम्’ पद है।
- ↑ स्वयं शास्त्रानुकूल आचरण कर, विभिन्न प्रकार से धर्म का महत्त्व दिखलाकर और लोगों के हृदय में प्रवेश करने वाली अप्रितिम प्रभावशालिनी वाणी के द्वारा उपदेश-आदेश देकर सबके अंतकरण में वेद, शास्त्र, परलोक, महापुरुष और भगवान् पर श्रद्धा उत्पन्न कर देना तथा सद्गुणों में और सदाचारों में विश्वास तथा प्रेम उत्पन्न करवाकर लोगों में इन सबको दृढ़तापूर्वक भलीभाँति धारण करा देना आदि सभी बातें धर्म की स्थापना के अंतर्गत हैं।
- ↑ यद्यपि भवगान् बिना ही अवतार लिये अनायास ही सब कुछ कर सकते हैं और करते भी है ही; किंतु लोगों पर विशेष दया करके अपने दर्शन, स्पर्श और भाषणादि के द्वारा सुगमता से लोगों को उद्धार का सुअवसर देने के लिये एवं अपने प्रेमी भक्तों का अपनी दिव्य लीलादि का आस्वादन कराने के लिये भगवान् साकाररूप से प्रकट होते हैं। उन अवतारों में धारण किये हुए रूप का तथा उनके गुण, प्रभाव, नाम, माहात्म्य और दिव्य कर्मों का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करके लोग सहज ही संसार-समुद्र से पार हो सकते हैं। यह काम बिना अवतार के नहीं हो सकता।
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