महाभारत वन पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-19

सप्तषष्टितम (67) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: सप्तषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


राजा नल का ऋतुपर्ण के यहाँ अश्वाध्यक्ष के पद पर नियुक्त होना और वहाँ दमयन्ती के लिये निरन्तर चिन्तित रहना तथा उनकी जीवन से बातचीत

बृहदश्व मुनि कहते हैं- कर्कोटक नाग के अन्तर्धान हो जाने पर निषध नरेश नल ने दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण के नगर में प्रवेश किया। वे बाहुक नाम से अपना परिचय देते हुए राजा ऋतुपर्ण के यहाँ उपस्थित हुए और बोले- ‘घोड़ों को हांकने की कला में इस पृथ्वी पर मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। मैं इन दिनों अर्थसंकट में हूँ। आपको किसी भी कला की निपुणता के विषय में सलाह लेनी हो, तो मुझसे पूछ सकते हैं। अन्न-संस्कार (भाँति-भाँति की रसोई बनाने का कार्य) भी मैं दूसरों की अपेक्षा विशेष जानता हूँ। इस जगत् में जितनी भी शिल्पकलाएं हैं तथा दूसरे भी जो अत्यन्त कठिन कार्य हैं, मैं उन सबको अच्छी तरह करने का प्रयत्न कर सकता हूँ। महाराज ऋतुपर्ण! आप मेरा भरण-पोषण कीजिये’।

ऋतुपर्ण ने कहा- 'बाहुक! तुम्हारा भला हो। तुम मेरे यहाँ निवास करो। ये सब कार्य तुम्हें करने होंगे। मेरे मन में सदा यही विचार विशेषतः रहता है कि शीघ्रतापूर्वक कहीं भी पहुँच सकूं। अतः तुम ऐसा उपाय करो, जिससे मेरे घोड़े शीघ्रगामी हो जायें। आज से तुम हमारे अश्वाध्यक्ष हो। दस हजार मुद्राएं तुम्हारा वार्षिक वेतन है। वार्ष्‍णेय और जीवल- ये दोनों सारथि तुम्हारी सेवा में रहेंगे। बाहुक! इन दोनों के साथ तुम बड़े सुख से रहोगे। तुम मेरे यहाँ रहो।'

बृहदश्व मुनि कहते हैं- राजन्! राजा के ऐसा कहने पर नल वार्ष्‍णेय और जीवल के साथ सम्मानपूर्वक ऋतुपर्ण के नगर में निवास करने लगे। वे दमयन्ती का निरन्तर चिन्तन करते हुए वहाँ रहने लगे। वे प्रतिदिन सायंकाल इस एक श्लोक को पढ़ा करते थे- ‘भूख-प्यास से पीड़ित और थकी-मांदी वह तपस्विनी उस मन्दबुद्धि पुरुष का स्मरण करती हुई कहाँ सोती होगी तथा अब वह किसके समीप रहती होगी?' एक दिन रात्रि के समय जब राजा इस प्रकार बोल रहे थे, जीवल ने पूछा- 'बाहुक! तुम प्रतिदिन किस स्त्री के लिये शोक करते हो, मैं सुनना चाहता हूँ। आयुष्मन्! वह किसकी पत्नी है, जिसके लिये तुम इस प्रकार निरन्तर शोकमग्न रहते हो।’

तब राजा नल ने उससे कहा- ‘किसी अल्पबुद्धि पुरुष के एक स्त्री थी, जो उसके अत्यन्त आदर की पात्र थी। किंतु उस पुरुष की बात अत्यन्त दृढ़ नहीं थी। वह अपनी प्रतिज्ञा से फिसल गया। किसी विशेष प्रयोजन से विवश होकर वह भाग्यहीन पुरुष अपनी पत्नी से बिछुड़ गया। पत्नी से विलग होकर वह मन्दबुद्धि मानव दिन-रात शोकाग्नि से दग्ध एवं दुःख से पीड़ित होकर आलस्य से रहित हो इधर-उधर भटकता रहता है। रात में उसी का स्मरण करके वह एक श्लोक को गाया करता है। सारी पृथ्वी का चक्कर लगाकर वह कभी किसी स्थान में पहुँचा और वहीं निरन्तर उस प्रियतमा का स्मरण करके दुःख भोगता रहता है। यद्यपि वह उस दुःख को भोगने के योग्य हैं नहीं। वह नारी इतनी पतिव्रता थी कि संकट काल में भी उस पुरुष के पीछे-पीछे वन में चली गयी; किंतु उस अल्प पुण्य वाले पुरुष ने उसे वन में ही त्याग दिया। अब तो यदि वह जीवित होगी तो बड़े कष्ट से उसके दिन बीतते होंगे। वह स्त्री अकेली थी। उसे मार्ग का ज्ञान नहीं था। जिस संकट में वह पड़ी थी, उसके योग्य वह कदापि नहीं थी। भूख और प्यास से उसके अंग व्याप्त हो रहे थे। उस दशा में परित्यक्त होकर वह यदि जीवित भी हो तो भी उसका जीवित रहना बहुत कठिन है। आर्य जीवन! अत्यन्त भयंकर विशाल वन में जहाँ नित्य-निरन्तर हिंसक जन्तु विचरते रहते हैं, उस मन्दबुद्धि एवं मन्दभाग्य पुरुष ने उसका त्याग कर दिया था। इस प्रकार निषध नरेश राजा नल दमयन्ती का निरन्तर स्मरण करते हुए राजा ऋतुपर्ण के यहाँ अज्ञातवास कर रहे थे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत नलोपाख्यानपर्व में नल-विलाप विषयक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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