महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-11

सप्तविंश (27) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की सम्‍भावना बतलाकर उन्‍हें युद्ध से उपरत करने का प्रयत्‍न करना

संजय बोला- पाण्‍डुनन्दन! आपकी प्रत्येक चेष्‍टा सदा धर्म के अनुसार ही होती है। कुन्तीकुमार! आपकी वह धर्मयुक्त चेष्‍टा लोक में तो विख्‍यात है ही, देखने में भी आ रही है। यद्यपि यह जीवन अनित्य है तथापि इससे महान सुयश की प्राप्ति हो सकती है। पाण्‍डव! आप जीवन की उस अनित्यता पर दृष्टिपात करें और अपनी कीर्ति को नष्‍ट न होने दें। अजातशत्रो! यदि कौरव युद्ध किये बिना आपको राज्य का भाग न दें, तो भी अन्धक और वृष्णिवंशी क्षत्रियों के राज्य में भीख मांगकर जीवन-निर्वाह कर लेना मैं आपके लिये श्रेष्‍ठ समझता हूं; परंतु युद्ध करके राज्य लेना अच्छा नहीं समझता। मनुष्‍य का जो यह जीवन है, वह बहुत थोडे़ समय तक रहने वाला है। इसको क्षीण करने वाले महान दोष इसे प्राप्त होते रहते हैं। यह सदा दु:खमय और चञ्चल है। अत: पाण्‍डुनन्दन! आप युद्धरूपी पाप न कीजिये। वह आपके सुयश-के अनुरूप नहीं है। नरेन्द्र! जो धर्माचरण में विघ्‍न डालने की मूल कारण हैं, वे कामनाएं प्रत्येक मनुष्‍य को अपनी ओर खींचती हैं। अत: बुद्धिमान मनुष्‍य पहले उन कामनाओं को नष्‍ट करता है, तदनन्तर जगत में निर्मल प्रशंसा का भागी होता है। कुन्तीनन्दन! इस संसार में धन की तृष्‍णा ही बन्धन में डालने वाली है। जो धन की तृष्‍णा में फंसता है, उसका धर्म भी नष्‍ट हो जाता है। जो धर्म का वरण करता है, वही ज्ञानी है।

भोगों की इच्छा करने वाला मनुष्‍य तो धन में आसक्त होने के कारण धर्म से भ्रष्‍ट हो जाता है। तात! धर्म, अर्थ और काम तीनों में धर्म को प्रधान मानकर तदनुसार चलने वाला पुरुष महाप्रतापी होकर सूर्य की भाँति चमक उठता है; परंतु जो धर्म से हीन है और जिसकी बुद्धि पाप में ही लगी हुई है, वह मनुष्‍य इस सारी पृथ्‍वी को पाकर भी कष्‍ट ही भोगता रहता है। आपने परलोक पर विश्‍वास करके वेदों का अध्‍ययन, ब्र‍ह्मचर्य का पालन एवं यज्ञों का अनुष्‍ठान किया है तथा ब्राह्मणों को दान दिया है और अनन्त वर्षों तक वहाँ के सुख भोगने के लिये अपने-आपको भी समर्पित कर दिया है। जो मनुष्‍य भोग तथा प्रिय (पुत्रादि) का निरन्तर सेवन करते हुए योगाभ्‍यासोपयोगी कर्म का सेवन नहीं करता, वह धन का क्षय हो जाने पर सुख से वञ्चित हो काम वेग से अत्यन्त विक्षुब्ध होकर सदा दु:ख शय्यापर शयन करता रहता है।

जो ब्रह्मचर्य पालन में प्रवृत्त न हो धर्म का त्याग करके अधर्म का आचरण करता है तथा जो मूढ़ परलोक पर विश्‍वास नहीं रखता है, वह मन्दभाग्य मानव शरीर त्यागने के पश्‍चात परलोक में बड़ा कष्‍ट पाता है। पुण्‍य अथवा पाप किन्हीं भी कर्मों का परलोक में नाथ नहीं होता है। पहले कर्ता के पुण्‍य और पाप परलोक में जाते हैं, फिर उन्हीं के पीछे-पीछे कर्ता जाता है। लोक में आपके कर्म इस रूप में विख्‍यात हैं कि आपने उत्तम दक्षिणायुक्त वृद्धिश्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों को न्यायोपार्जित प्रचुर धन एवं श्रद्धासहित उत्तम गन्धयु‍क्त, सुस्वादु एवं पवित्र अन्न का दान किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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