महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 154 श्लोक 1-17

चतुष्पन्चाशदधिकशततम (154) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुष्पन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मण शिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन

वायु देवता कहते हैं- राजन! पहले की बात है, अंग नाम वाले एक नरेश ने इस पृथ्वी को ब्राह्मणों के हाथ में दान कर देने का विचार किया। यह जानकर पृथ्वी को बड़ी चिन्ता हुई। वह सोचने लगी- ‘मैं सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करने वाली और ब्रह्मा जी की पुत्री हूँ। मुझे पाकर यह श्रेष्ठ राजा ब्राह्मणों को क्यों देना चाहता है। यदि इसका ऐसा विचार है तो मैं भी भूमित्व का (लोकधारणरूप अपने धर्म का) त्याग करके ब्रह्मलोक चली जाऊँगी, जिससे यह राजा अपने राज्य से नष्ट हो जाये।’ ऐसा निश्चय करके पृथ्वी चली गयी।

पृथ्वी को जाते देख महर्षि कश्यप योग का आश्रय ले अपने शरीर को त्याग कर तत्काल भूमि के इस स्थूल विग्रह में प्रविष्ट हो गये। नरेश्वर! उनके प्रवेश करने से पृथ्वी पहले की अपेक्षा भी समृद्धिशालिनी हो गयी। चारों ओर घास-पात और अन्न की अधिक उपज होने लगी। उत्तरोत्तर धर्म बढ़ने लगा और भय का नाश हो गया। राजन! इस प्रकार आलस्यशून्य हो विशाल व्रत का पालन करने वाले महर्षि कश्यप तीस हज़ार दिव्य वर्षों तक पृथ्वी के रूप में स्थित रहे। महाराज! तत्पश्चात पृथ्वी ब्रह्मलोक से लौटकर आयी और उन महात्मा कश्यप को प्रणाम करके उनकी पुत्री बनकर रहने लगी। तभी से उसका नाम काश्यपी हुआ।

राजन! ये कश्यप जी ब्राह्मण ही थे, जिनका ऐसा प्रभाव देखा गया है। तुम कश्यप से भी श्रेष्ठ किसी अन्य क्षत्रिय को जानते हो तो बताओ। राजा कार्तवीर्य अर्जुन कोई उत्तर न दे सका। वह चुपचाप ही बैठा रहा। तब पवन देवता फिर कहने लगे- ‘राजन! अब तुम अंगिरा के कुल में उत्पन्न हुए उतथ्य का वृत्तान्त सुनो। सोम की पुत्री भद्रा नाम से विख्यात थी। वह अपने समय की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी मानी जाती थी। चन्द्रमा ने देखा, महर्षि उतथ्य ही मेरी पुत्री के योग्य वर हैं। ‘सुन्दर अंगों वाली महाभागा यशस्विनी भद्रा भी उतथ्य को पति रूप में प्राप्त करने के लिये उत्तम नियम का आश्रय ले तीव्र तपस्या करने लगी। तब कुछ दिनों के बाद सोम के पिता महर्षि अत्रि ने उतथ्य को बुलाकर अपनी यशस्विनी पौत्री का हाथ उनके हाथ में दे दिया।

प्रचुर दक्षिणा देने वाले उतथ्य ने अपनी पत्नी बनाने के लिये भद्रा का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। ‘परंतु श्रीमान वरुण देव उस कन्या को पहले से ही चाहते थे। उन्होंने वन में स्थित मुनि के आश्रम के निकट आकर यमुना में स्नान करते समय भद्रा का अपहरण कर लिया। जलेश्वर वरुण उस स्त्री को हरकर अपने परम अद्भुत नगर में ले आये, जहाँ छः हज़ार बिजलियों का प्रकाश छा रहा था। वरुण के उस नगर से बढ़कर दूसरा कोई परम रमणीय एवं उत्तम नगर नहीं है। वह असंख्य महलों, अप्सराओं और दिव्य भोगों से सुशोभित होता है। राजन! जल के स्वामी वरुण देव वहाँ भद्रा के साथ रमण करने लगे। तदनन्तर नारद जी ने उतथ्य को यह समाचार बताया कि ‘वरुण ने आपकी पत्नी का अपहरण एवं उसके साथ बलात्कार किया है।' नारद जी के मुख से यह सारा समाचार सुनकर उतथ्य ने उस समय नारद जी से कहा- ‘देवर्षे! आप वरुण के पास जाइये और उनसे मेरा यह कठोर संदेश कह सुनाइये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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