महाभारत सभा पर्व अध्याय 58 श्लोक 1-19

अष्टपंचाशत्तम (58) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


विदुर और युधिष्ठिर की बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर में जाकर सबसे मिलना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर राजा धृतराष्ट्र के बलपूर्वक भेजने पर विदुर जी अत्यन्त वेगशाली, बलवान् और अच्छी प्रकार काबू में किये हुए महान् अश्वों से जुते रथ पर सवार हो परम बुद्धिमान पाण्डवों के समीप गये महाबुद्धिमान विदुर जी उस मार्ग को तय करके राजा युधिष्ठिर राजधानी में जा पहुँचे और वहाँ द्विजातियों से सम्मानित होकर उन्होंने नगर में प्रवेश किया। कुबेर के भवन के समान सुशोभित राजमहल में जाकर धर्मात्मा विदुर धर्मपुत्र युधिष्ठिर से मिले। सत्यवादी महात्मा अजीमढ़नन्दन अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने विदुर जी का यथावत् आदर-सत्कार करके उनसे पुत्रसहित धृतराष्ट्र की कुशल पूछी।

युधिष्ठिर बोल- विदुर जी! आपका मन प्रसन्न नहीं जान पड़ता। आप कुशल से तो आये हैं? बूढे़ राजा धृतराष्ट्र के पुत्र उनके अनुकूल चलते हैं न? तथा सारी प्रजा उनके वश में है न?

विदुर ने कहा- राजन्! इन्द्र के समान प्रभावशाली महामना राजा धृतराष्ट्र अपने जातिभार्इयों तथा पुत्रोंसहित सकुशल हैं। अपने विनीत पुत्रों से वे प्रसन्न रहते हैं। उनमें शोक का अभाव है। वे महामना अपनी आत्मा में ही अनुराग रखने वाले हैं। कुरुराज धृतराष्ट्र ने पहले तुमसे कुशल और आरोग्य पूछकर यह संदेश दिया है कि वत्स! मैंने तुम्हारी सभा के समान ही एक सभा तैयार करायी है। तुम अपने भाइयों के साथ आकर अपने दुर्योधन आदि भाईयों की इस सभा को देखो। इसमें सभी इष्ट-मित्र मिलकर द्यूतक्रीड़ा करें और मन बहलावें। हम सभी कौरव तुम सब से मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे। महामना राजा धृतराष्ट्र ने वहाँ जो जूए के स्थान बनवाये हैं, उनको और वहाँ जुटकर बैठे हुए धूर्त जुआरियों को तुम देखोगे। राजन् मैं इसीलिये आया हूँ। तुम चलकर उस सभा एवं द्यूतक्रीड़ा का सेवन करो।

युधिष्ठिर ने पूछा- विदुर जी! जूए में झगड़ा-फसाद होता है। कौन समझदार मनुष्य जूआ खेलना पसंद करेगा अथवा आप क्या ठीक समझते हैं; हम सब लोग तो आपकी आज्ञा के अनुसार ही चलने वाले हैं।

विदुर जी ने कहा- विद्वन्! मैं जानता हूँ, जूआ अनर्थ की जड़ है; इसीलिये मैंने उसे रोकने का प्रयत्‍न भी किया तथापि राजा धृतराष्ट्र ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, यह सुनकर तुम्हें जो कल्याणकर जान पड़े, वह करो।

युधिष्ठिर ने पूछा -विदुर जी! वहाँ राजा धृतराष्ट्र के पुत्रों को छोड़कर दूसरे कौन-कौन धूर्त जुआ खेलने वाले हैं? यह मैं आपसे पूछता हैूं। आप उन सबको बताइये, जिनके साथ मिलकर और सैकड़ों की बाजी लगाकर हमें जुआ खेलना पड़ेगा।

विदुर ने कहा- राजन्! वहाँ गान्धराज शकुनि है, जो जुए का बहुत बड़ा खिलाड़ी है। वह अपनी इच्छा के अनुसार पासे फेंकने में सिद्धहस्त है। उसे द्यूतविद्या के रहस्य का ज्ञान है। उसके सिवा राजा विविंशति, चित्रसेन, राजा सत्यव्रत, पुरूमित्र और जय भी रहेंगे।

युधिष्ठिर बोले- तब तो वहाँ बड़े भयंकर, कपटी और धूर्त जुआरी हुटे हुए हैं। विधाता का रचा हुआ यह सम्पूर्ण जगत् दैव के ही अधीन है; स्वतन्त्र नहीं है। बुद्धिमान विदुर जी! मैं राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से जूए में अवश्य चलना चाहता हूँ। पुत्र को पिता सदैव प्रिय है; अत: आपने मुझे जैसा आदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। मेरे मन में जूआ खेलने की इच्‍छा नहीं है। यदि मुझे विजयशील राजा धृतराष्ट्र सभा में न बुलाते, तो मैं शकुनि से कभी जुआ न खेलता; किंतु बुलाने पर मैं कभी पीछे नहीं हटूँगा। यह मेरा सदा का नियम है।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विदुर से ऐसा कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही यात्रा की सारी तैयारी करने के लिये आज्ञा दे दी। फिर सवेरा होने पर उन्‍होंने अपने भाई-बन्‍धुओं, सेवकों तथा द्रौपदी आदि स्त्रियों के साथ हस्तिनापुर की यात्रा की। जैसे उत्‍कृष्‍ट तेज सामने आने पर आँख की ज्‍योति को हर लेता है, उसी प्रकार दैव मनुष्‍य की बुद्धि को हर लेता है। दैव से ही प्रेरित होकर मनुष्‍य रस्‍सी में बँधे हुए की भाँति विधाता के वश में घूमता रहता है। ऐसा कहकर शत्रुदमन राजा युधिष्ठिर जूए के लिये राजा धृतराष्ट्र के उस बुलावे को सहन न करते हुए भी विदुर जी के साथ वहाँ जाने को उद्यत हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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