पच्चात्रिंशदधिकद्विशततम (235) अध्याय: वन पर्व (द्रौपदी सत्यभामा सवांद पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पच्चात्रिंशदधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय भगवान् श्रीकृष्ण मार्कण्डेय आदि ब्रह्मर्षियों तथा महात्मा पाण्डवों के साथ अनुकूल बातें करते हुए कुछ काल तक वहाँ रहकर (द्वारिका जाने को उद्यत हुए )। मधुसूदन केशव ने उन सब से यथावत् वार्तालाप के अनन्तर विदा लेकर रथ पर चढ़ने की इच्छा से सत्यभामा को बुलाया। तब सत्यभामा वहाँ द्रुपदकुमारी से गले मिलकर अपने हार्दिक भाव के अनुसार एकाग्रतापूर्वक मधुर वचन बोली- ‘सखी कृष्णे! तुम्हें उत्कण्ठित (राज्य के लिये चिन्तित) और व्यथित नहीं होना चाहिये। तुम इस प्रकार रात-रात भर जागना छोड़ दो। तुम्हारे देवतुल्य पतियों द्वारा जीती हुई इस पृथ्वी का राज्य तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा। श्यामलोचने! तुम्हें जैसा क्लेश सहन करना पड़ा है, वैसा कष्ट तुम्हारी जैसी सुशीला तथा श्रेष्ठ लक्षणों वाली देवियां अधिक दिनों तक नहीं भोगा करती हैं। मैंने (महात्माओं से) सुना है कि तुम अपने पतियों के साथ निश्चय ही इस पृथ्वी का निर्द्वन्द्व तथा निष्कण्टक राज्य भोगोगी। द्रुपदकुमारी! तुम शीघ्र ही देखोगी कि धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर और पहले के वैर का भरपूर बदला चुकाकर तुम्हारे पतियों ने विजय पायी है और इस पृथ्वी पर महाराज युधिष्ठिर का अधिकार हो गया है। तुम्हारे वन जाते समय अभिमान से मोहित हो कुरु कुल की जिन स्त्रियों ने तुम्हारी हंसी उड़ायी थी, उनकी आशाओं पर पानी फिर जायेगा और तुम उन्हें शीघ्र ही दुरवस्था में पड़ी हुई देखोगी। कृष्णे! तुम दु:खों में पड़ी हुई थीं, उस दशा में जिन लोगों ने तुम्हारा अप्रिय किया है, उन सब को तुम यमलोक में गया हुआ ही समझो। युधिष्ठिरकुमार प्रतिविन्ध्य, भीमसेननन्दन सुतसोम, अर्जुनकुमार श्रुतकुमार, नकुलनन्दन शतानीक तथा सहदेवकुमार सुतसेन-तुम्हारे ये सभी वीर पुत्र शस्त्र विद्या में निपुण हो गये हैं और कुशलपूर्वक द्वारिकापुरी में रहते हैं। वे सब के सब अभिमन्यु की भाँति बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ रहते हैं। द्वारिका में उनका मन बहुत लगता है। सुभद्रा देवी तुम्हारी ही तरह उन सबके साथ सब प्रकार से प्रेमपूर्ण बर्ताव करती हैं। वे किसी के प्रति भेदभाव न रखकर उन सबके प्रति निश्छल स्नेह रखती हैं। वे उन बालकों के दु:ख से ही दु:खी और उन्हीं के सुख से सुखी होती है। प्रद्युम्न की माताजी भी उनकी सब प्रकार से सेवा और देखभाल करती हैं। श्यामसुन्दर अपने भानु आदि पुत्रों से भी बढ़कर तुम्हारे पुत्रों को मानते हैं। मेरे ससुरजी प्रतिदिन इनके भोजन-वस्त्र आदि की समुचित व्यवस्था पर दृष्टि रखते हैं। बलराम जी आदि सभी अन्धकवंशी तथा वृष्णिवंशी यादव उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखते है। भामिनि! उन सब का और प्रद्युम्न का भी तुम्हारे पुत्रों पर समान प्रेम हैं।' इस प्रकार हृदय को प्रिय लगने वाले सत्य एवं मन के अनुकूल वचन कहकर श्रीकृष्णमहिषी सत्यभामा ने अपने स्वामी के रथ की ओर जाने का विचार किया और द्रौपदी की परिक्रमा की। तदनन्तर भामिनी सत्यभामा श्रीकृष्ण के रथ पर आरूढ़ हो गयी। यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर द्रौपदी को सान्त्वना दी और उसे लौटाकर शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा अपनी पुरी द्वारिका को प्रस्थान किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत द्रौपदी-सत्यभामा-संवादपर्व में श्रीकृष्ण का द्वारिका को प्रस्थान विषयक दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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