महाभारत आदि पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-13

एकादशाधिकशततम (111) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: एकादशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
कुन्‍ती द्वारा स्‍वयंवर में पाण्‍डु का वरण और उनके साथ विवाह

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा कुन्तिभोज की पुत्री विशाल नेत्रों वाली पृथा धर्म, सुन्‍दर रुप तथा उत्तम गुणों से सम्‍पन्न थी। वह एकमात्र धर्म में ही रत रहने वाली और महान् व्रतों का पालन करने वाली थी। स्त्रीजनोचित सर्वोत्तम गुण अधिक मात्रा में प्रकट होकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। मनोहर रुप तथा युवावस्‍था से सुशोभित उस तेजस्विनी राजकन्‍या के लिये कई राजाओं ने महाराज कुन्तिभोज से याचना की। राजेन्‍द्र! तब कन्‍या के पिता राजा कुन्तिभोज ने उन सब राजाओं को बुलाकर अपनी पुत्री पृथा को स्‍वयंवर में उपस्थित किया। मनस्विनी कुन्‍ती ने सब राजाओं के बीच रंगमञ्च पर बैठे हुए भरतवंश शिरोमणि नृपश्रेष्ठ पाण्डु को देखा। उनमें सिंह के समान अभिमान जाग रहा था। उनकी छाती बहुत चौड़ी थी। उनके नेत्र बैल की आंखों के समान बड़े-बड़े थे। उनका बल महान् था। वे सब राजाओं की प्रभा को अपने तेज से आच्‍छादित करके भगवान् सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। उस राज समाज में वे द्वितीय इन्‍द्र के समान विराजमान थे।

निर्दोष अंगों वाली कुन्तिभोजकुमारी शुभलक्षणा कुन्‍ती स्‍वयंवर की रंगभूमि में नरश्रेष्ठ पाण्‍डु को देखकर मन-ही-मन उन्‍हें पाने के लिये व्‍याकुल हो उठी। उसके सब अंग काम से व्‍याप्त हो गये और चित्त एकबारगी चञ्चल हो उठा। कुन्‍ती ने लजाते-लजाते राजा पाण्‍डु के गले में जयमाला डाल दी। सब राजाओं ने जब सुना कि कुन्‍ती ने महाराज पाण्‍डु का वरण कर लिया, तब वे हाथी, घोड़े, एवं रथों आदि वाहनों द्वारा जैसे आये थे,वैसे ही अपने-अपने स्‍थान को लौट गये। राजन्! तब उसके पिता ने (पाण्‍डु के साथ शास्त्र विधि के अनुसार) कुन्‍ती का विवाह कर दिया। अनन्‍त सौभाग्‍यशाली कुरुनन्‍दन पाण्‍डु कुन्तिभोजकुमारी से संयुक्‍त हो शची के साथ इन्‍द्र की भाँति सुशोभित हुए। राजेन्‍द्र! महाराज कुन्तिभोज ने कुन्‍ती और पाण्‍डु का विवाह संस्‍कार सम्‍पन्न करके उस समय उन्‍हें नाना प्रकार के धन और रत्नों द्वारा सम्‍मानित किया। तत्‍पश्चात् पाण्‍डु को उनकी राजधानी में भेज दिया। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! तब कौरवनन्‍दन राजा पाण्‍डु नाना प्रकार की ध्‍वजा-पताकाओं से सुशोभित विशाल सेना के साथ चले। उस समय बहुत-से ब्राह्मण एवं म‍हर्षि आशीर्वाद देते हुए उनकी स्‍तुति करवाते थे। हस्तिनापुर में आकर उन शक्तिशाली नरेश ने अपनी प्‍यारी पत्नी कुन्‍ती को राजमहल में पहुँचा दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में कुंतीविवाहविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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