नवतितम (90) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! श्राद्ध कब प्रचलित हुआ? सबसे पहले किस महर्षि ने इसका संकल्प लिया अर्थात प्रचार किया? श्राद्ध का स्वरूप क्या है? यदि भृगु और अंगिरा के समय में इसका प्रारम्भ हुआ तो किस मुनि ने इसको प्रकट किया? श्राद्ध में कौन-कौन से कर्म, कौन-कौन से फल-मूल और कौन-कौन से अन्न त्याग देने योग्य हैं? वह मुझसे कहिये। भीष्म जी ने कहा- राजन! श्राद्ध का जिस समय और जिस प्रकार प्रचलन हुआ, जो इसका स्वरूप है तथा सबसे पहले जिसने इसका संकल्प किया अर्थात प्रचार किया, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। कुरुनन्दन! महाराज! प्राचीनकाल में ब्रह्मा जी से महर्षि अत्रि की उत्पत्ति हुई। वे बड़े प्रतापी ऋषि थे। उनके वंश में दत्तात्रेय जी का प्रादुर्भाव हुआ। दत्तात्रेय के पुत्र निमि हुए, जो बड़े तपस्वी थे। निमि के भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम श्रीमान था। वह बड़ा कान्तिमान था। उसने पूरे एक हज़ार वर्षों तक बड़ी कठोर तपस्या करके अन्त में कालधर्म के अधीन होकर प्राण त्याग दिया। फिर निमि शास्त्रोक्त कर्म द्वारा अशौच निवारण करके पुत्र-शोक में मग्न हो अत्यन्त संतप्त हो उठे। तदनन्तर परम बुद्धिमान निमि चतुर्दशी के दिन श्राद्ध में देने योग्य वस्तुऐं एकत्रित करके पुत्रशोक से ही चिन्तित हो रात बीतने पर (अमावास्या को श्राद्ध करने के लिये) प्रातःकाल उठे। प्रातःकाल जागने पर उनका मन पुत्र शोक से व्यथित होता रहा; किन्तु बुद्धि बड़ी विस्तृत थी। उसके द्वारा उन्होंने मन को शोक की ओर से हटाया और एकाग्रचित्त होकर श्राद्ध-विधि का विचार किया। फिर श्राद्ध के लिये शास्त्रों में जो फल-मूल आदि जो भोज्य पदार्थ बताये गये हैं तथा उनमें जो-जो पदार्थ उनके पुत्र को प्रिय थे, उन सबका मन-ही-मन निश्चय करके उन तपोधन ने संग्रह किया। तदनन्तर, उन महान बुद्धिमान मुनि ने अमावास्या के दिन सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी पूजा की और उनके लिये स्वयं ही प्रदक्षिण भाव से मोड़े हुए कुश के आसन बनाकर उन्हें उन पर बैठाया। प्रभावशाली निमि ने उन सातों को एक ही साथ भोजन के लिये अलोना सावाँ परोसा। इसके बाद भोजन करने वाले ब्राह्मणों के पैरों के नीचे आसनों पर उन्होंने दक्षिणाग्र कुश बिछा दिये (और अपने सामने भी) दक्षिणाग्र कुश रखकर पवित्र एवं सावधान हो अपने पुत्र श्रीमान के नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए कुशों पर पिण्डदान किया। इस प्रकार श्राद्ध करने के पश्चात मुनिश्रेष्ठ निमि अपने में धर्मसंकरता का दोष मानकर[1] महान पश्चाताप से संतप्त हो उठे और इस प्रकार चिंता करने लगे। 'अहो! मुनियों ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया, उसे मैंने ही क्यों कर डाला? मेरे इस मनमाने बर्ताव को देखकर ब्राह्मण लोग मुझे अपने शाप से क्यों नहीं भस्म कर डालेंगे?' यह बात ध्यान में आते ही उन्होंने अपने वंश प्रर्वतक महर्षि अत्रि का स्मरण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात वेद में पिता-पितामह आदि के उद्देश्य से जिस श्राद्ध का विधान है, उसको मैंने स्वेच्छा से पुत्र के निमित्त किया है- यह सोचकर
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