महाभारत आदि पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-19

चतुस्त्रिं‍श (34) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

Prev.png

महाभारत: आदि पर्व: चतुस्त्रिं‍श अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
इंद्र और गरुड़ के मित्रता, गरुड़ का अमृत लेकर नागों के पास आना और विनता को दासीभाव से छुड़ाना तथा इंद्र द्वारा अमृत का अपहरण

गरुड़ ने कहा- देवपुरन्दर! जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हारे साथ (मेरी) मित्रता स्थापित हो। मेरा बल भी जान लो, वह महान और असह्म है। शतक्रतो! साधु पुरुष स्वेच्छा से अपने बल की स्तुति और अपने ही मुख से अपने गुणों का बखान अच्छा नहीं मानते। किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूँ; क्योंकि अकारण ही अपनी प्रशंसा से भरी हुई बात नहीं कहनी चाहिये (किन्तु किसी मित्र के पूछने पर सच्ची बात कहने में कोई हर्ज नहीं है।)। इन्द्र! पर्वत, वन और समुद्र के जल सहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आपको भी अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम के उड़ सकता हूँ। अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकों को एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाये तो मैं सबको बिना परिश्रम के ढो सकता हूँ। इससे तुम मेरे महान बल को समझ लो।

उग्रश्रवा जी कहते हैं- शौनक! वीरवर गरुड़ के इस प्रकार कहने पर श्रीमानों में श्रेष्ठ किरीटधारी सर्वलोकहितकारी भगवान देवेन्द्र ने कहा- ‘मित्र! तुम जैसा कहते हो, वैसी ही बात है। तुममें सब कुछ सम्भव है। इस समय मेरी अत्यन्त उत्तम मित्रता स्वीकार करो। यदि तुम्हें स्वयं अमृत की आवश्यकता नहीं है तो वह मुझे वापस दे दो। तुम जिनको यह अमृत देना चाहते हो, वे इसे पीकर हमें कष्ट पहुँचावेंगे।' गरुड़ ने कहा- स्वर्ग के सम्राट सहस्राक्ष! किसी कारणवश मैं यह अमृत ले जाता हूँ। इसे किसी को भी पीने के लिये नहीं दूँगा। मैं स्वयं जहाँ इसे रख दूँ, वहाँ से तुरन्त तुम उठा ले जा सकते हो। इन्द्र बोले- पक्षिराज! तुमने यहाँ जो बात कही है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। खगश्रेष्ठ! तुम मुझसे जो चाहो, वर माँग लो। उग्रश्रवा जी कहते हैं- इन्द्र के ऐसा कहने पर गरुड़ को कद्रूपुत्रों की दुष्टता का स्मरण हो आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्ताव की भी याद आ गयी, जो माता को दासी बनाने में कारण था। अतः उन्होंने इन्द्र से कहा- ‘इन्द्र! यद्यपि मैं सब कुछ करने में समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारी इस याचना को पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरों को न दिया जाये। साथ ही तुम्हारे कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजन की सामग्री हो जायँ।

तब दानवशत्रु इन्द्र ‘तथास्तु’ कहकर योगीश्वर देवाधिदेव परमात्मा श्रीहरि के पास गये। श्रीहरि ने भी गरुड़ की कही हुई बात का अनुमोदन किया। तदनन्तर स्वर्गलोक के स्वामी भगवान इन्द्र पुनः गरुड़ को सम्बोधित करके इस प्रकार बोले- ‘तुम जिस समय इस अमृत को कहीं रख दोगे उसी समय मैं इसे हर ले आउँगा’ (ऐसा कहकर इन्द्र चले गये)। फिर सुन्दर पंख वाले गरुड़ तुरंत ही अपनी माता के समीप आ पहुँचे। तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न से होकर वे समस्त सर्पों से इस प्रकार बोले- ‘पन्नगो! मैंने तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। इसे कुशों पर रख देता हूँ। तुम सब लोग स्नान और मंगल कर्म (स्वस्तिवाचन आदि) करके इस अमृत का पान करो। अमृत के लिये भेजते समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, उनके अनुसार आज से मेरी ये माता दासीपन से मुक्त हो जायें; क्योंकि तुमने मेरे लिये जो काम बताया था, उसे मैंने पूर्ण कर दिया है’।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः