महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 287 श्लोक 1-13

सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम (287) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
नारद जी का गालव मुनि को श्रेय का उपदेश

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो शास्‍त्रों के तत्त्व को नहीं जानता, जिसका मन सदा संशय में ही पड़ा रहता है तथा जिसने परमार्थ के लिये कोई निश्चित ध्‍येय नहीं बनाया है, उस पुरुष का कल्याण कैसे हो स‍कता है?

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! सदा गुरुजनों की पूजा, वृद्ध पुरुषों की सेवा और शास्‍त्रों का श्रवण- ये तीन कल्याण के अमोघ साधन बताये जाते हैं। इस विषय में भी जानकार मनुष्य देवर्षि नारद और महर्षि गालव के संवादरूप प्राचीन इतिहास को उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, कल्याण की इच्‍छा रखने वाले जितेन्द्रिय गालव मुनि ने अपने आश्रम पर पधारे हुए देवोपम तेजस्‍वी ब्राह्मण, मोह और क्‍लान्ति से रहित, ज्ञानानन्‍द से परिपूर्ण एवं मन को वश में रखने वाले देवर्षि नारद जी से इस प्रकार पूछा- 'मुने! संसार में कोई भी पुरुष जिन गुणों द्वारा सम्मानित होता है, उन समस्‍त गुणों का मैं आपमें कभी अभाव नहीं देखता हूँ। लोक-तत्त्व के ज्ञान से शून्‍य और चिरकाल से अज्ञान में पड़े हुए हम-जैसे लोगों के संशय का निवारण सर्वगुणसम्पन्‍न आप-जैसा महात्मा ही कर सकता है। मुने! शास्‍त्रों में बहुत- से कर्तव्‍यकर्म बताये गये हैं, उनमें अमुक कर्म के इस प्रकार करने से ज्ञानमार्ग में प्रवृति हो सकती है, इसका विशेषरूप से हमें निश्‍चय नहीं हो पाता है; अत: हमारे लिये जो कर्तव्‍य हो और जिसका निर्धारण हम न कर पाते हों, उसे आप ही हमें बताने की कृपा करें।

भगवान! सभी आश्रमों वाले पृथक-पृथक आचार का दर्शन कराते हैं तथा 'यह श्रेष्ठ है, यह श्रेष्ठ है' ऐसा उपदेश देते हुए वे (अपने ही सिद्धान्‍तों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं और) सभी मनुष्यों की बुद्धि में यही बात जमा देते हैं। जिनके मन में वह बात बैठ गयी है, उन सबको उन शास्‍त्रों के उपदेश के अनुसार नाना प्रकार के आचार मार्ग से चलते और अपने-अपने शास्‍त्रों का अभिनन्‍दन करते देखकर जैसे हम अपनी मान्‍यता में संतुष्ट हैं, वैसे ही उन्‍हें भी संतुष्ट पाकर हमारे मन में संशय उत्पन्‍न हो गया है। हम यह ठीक-ठीक निश्‍चय नहीं कर पा रहे हैं कि परमकल्याण की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय क्‍या है? यदि शास्‍त्र एक होता तो श्रेय की प्राप्ति का उपाय भी एक ही होने के कारण वह स्‍पष्ट रूप से समझ में आ जाता, परंतु बहुत-से शास्‍त्रों ने नाना प्रकार से वर्णन करके श्रेय को गुह्य अवस्‍था में पहुँचा दिया है- उसे अत्यन्‍त गूढ़ बना डाला है। इस कारण से मुझे श्रेय का स्‍वरूप संशयाच्‍छन्‍न जान पड़ता है। भगवान! अब आप ही मुझे उसका उपदेश दें। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझ शिष्य को श्रेयोमार्ग का बोध करायें।'

नारद जी ने कहा- तात! आश्रम चार हैं और शास्‍त्रों में उनकी पृथक-पृथक व्‍यवस्‍था की गयी है। गालव! तुम ज्ञान का आश्रय लेकर उन सबको यथार्थरूप से जानो। विप्रवर! उन-उन आश्रमों के जो नाना प्रकार से गुण-सम्पन्‍न धर्म बताये गये हैं, उनकी पृथक-पृथक स्थिति है। इस बात को तुम देखो और समझो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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