सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों को एक वर्ष से वहाँ प्रसन्नचित्त हो विश्वस्त की तरह रहते हुए देख पुरोचन को बड़ा हर्ष हुआ। उसके इस प्रकार सम्पन्न होने पर धर्म के ज्ञाता कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से इस प्रकार कहा- ‘पापी पुरोचन हम लोगों को पूर्ण विश्वस्त समझ रहा है। इस क्रूर को अब तक हम लोगों ने धोखा दिया है। अब मेरी राय में हमारे भाग निकलने का यह उपयुक्त अवसर आ गया है। इस आयुधागार में आग लगाकर पुरोचन को जलाकर के इसके भीतर छ: प्राणियों को रखकर हम इस तरह भाग निकलें कि कोई हमें देख न सके’। महाराज! तदनन्तर एक दिन रात्रि के समय कुन्ती ने दान देने के निमित्त ब्राह्मण-भोजन कराया। उसमें बहुत-सी स्त्रियां भी आयी थी। भारत! वे सब स्त्रियां इच्छानुसार घूम फिरकर खा-पी लेने के बाद कुन्ती देवी से आज्ञा ले रात में फिर अपने-अपने घरों को ही लौट गयीं। परंतु दैवेच्छा से उस भोज के समय एक भीलनी अपने पांच बेटों के साथ वहाँ भोजन की इच्छा से आयी। मानो काल ने ही उसे प्रेरित करके वहाँ भेजा था। वह भीलनी मदिरा पाकर मतवाली हो चुकी थी। उसके पुत्र भी शराब पीकर मस्त थे। राजन्! शराब के नशे में बेहोश होने के कारण अपने सब पुत्रों के साथ वह उसी घर में सो गयी। उस समय वह अपनी सुध-बुध खोकर मृतक-सी हो रही थी। रात में जब सब लोग सो गये, उस समय सहसा बड़े जोर की आंधी चली। तब भीमसेन ने उस जगह आग लगा दी। जहाँ पुरोचन सो रहा था। फिर उन्होंने लाक्षागृह के प्रमुख द्वार पर आग लगायी। इसके पश्चात् उन्होंने उस घर के चारों ओर आग लगा दी। जब वह सारा घर अग्नि की लपेट में आ गया, तब यह जानकर शत्रुओं का दमन करने वाले पाण्डव अपनी माता के साथ सुरंग में घुस गये; फिर तो वहाँ अग्नि की भयंकर लपटें उठने लगी, भीषण ताप फैल गया। घर को जलाने वाली उस आग का महान् चट-चट शब्द सुनाई देने लगा। इससे उस नगर का जन-समूह जाग उठा। उस घर को जलता देख पुरवासियों के मुख पर दीनता छा गयी। वे व्याकुल हो कर कहने लगे। पुरवासी बोले- अहो! पुरोचन का अन्त:करण अपने वश में नहीं था। उस पापी ने दुर्योधन की आज्ञा से अपने ही विनाश के लिये इस घर को बनवाया और जला भी दिया! अहो! धिक्कार है, धृतराष्ट्र की बुद्धि बहुत बिगड़ गयी है, जिसने शुद्ध हृदय वाले पाण्डुपुत्रों को शत्रु की भाँति आग में जला दिया। सौभाग्य की बात है कि यह अत्यन्त खोटी बुद्धि वाला पापात्मा पुरोचन भी इस समय दग्ध हो गया है, जिसने बिना किसी अपराध के अपने ऊपर पूर्ण विश्वास करने वाले नरश्रेष्ठ पाण्डवों को जला दिया है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार वारणावत के लोग विलाप करने लगे। वे रात भर उस घर को चारों ओर से घेर कर खड़े रहे। उधर समस्त पाण्डव भी अत्यन्त दुखी हो अपनी माता के साथ सुरंग के मार्ग से निकल कर तुरंत ही दूर चले गये। उन्हें कोई भी देख न सका। नींद न ले सकने के कारण आलस्य और भय से युक्त परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ जल्दी-जल्दी चल नहीं पाते थे। राजेन्द्र! भयंकर वेग और पराक्रम वाले भीमसेन अपने सब भाइयों तथा माता को भी साथ लिये चल रहे थे। वे महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। उन्होंने माता को तो कन्धे पर चढ़ा लिया और नकुल-सहदेव को गोद में उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे। तेजस्वी भीम वायु के समान वेगशाली थे। वे अपनी छाती के धक्के से वृक्षों को तोड़ते और पैरों की ठोकर से पृथ्वी को विदीर्ण करते हुए तीव्र गति से आगे बढ़ जा रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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