महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-15

एकाशीतितम (81) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन को स्वप्न में ही पुनः पाशुपतास्त्र की प्राप्ति

  • संजय कहते हैं- राजन। तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुन ने प्रसन्नचित्त हो हाथ जोड़कर समस्त तेजों के भण्डार भगवान वृषभध्वज का हर्षोत्फुल्ल नेत्रों से दर्शन किया। (1)
  • उन्होंने अपने द्वारा समर्पित किये हुए रात्रिकाल के उस नैत्यिक उपहार को, जिसे श्रीकृष्ण को निवेदित किया था भगवान त्रिनेत्रधारी शिव के समीप रखा हुआ देखा। (2)
  • तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने मन-ही-मन भगवान श्रीकृष्ण और ‍शिव की पूजा करके भगवान शंकर से कहा- 'प्रभो। मैं आपसे दिव्य अस्त्र प्राप्त करना चाहता हूँ।' (3)
  • उस समय अर्जुन का वर-प्राप्ति के लिये वह वचन सुनकर महादेव जी मुस्कराने लगे और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से बोले। (4)
  • 'नरश्रेष्ठ। तुम दोनों का स्वागत है। तुम्हारा मनोरथ मुझे विदित है। तुम दोनों जिस कामना से यहाँ आये हो उसे मैं तुम्हें दे रहा हूँ।' (5)
  • 'शत्रुसूदन वीरो! यहाँ पास ही दिव्य अमृतमय सरोवर है, वहीं पूर्वकाल में मेरा वह दिव्य धनुष और बाण रखा गया था, जिसके द्वारा मैंने युद्ध में सम्पूर्ण देव-शत्रुओं को मार गिराया था। कृष्ण तुम दोनों उस सरोवर से बाणसहित वह उत्तम धनुष ले आओ।' (6-7)
  • तब 'बहुत अच्छा' कहकर वे दोनों वीर भगवान शंकर के पार्षदगणों के साथ सैकड़ों दिव्य ऐश्वर्यों से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि करने वाले उस पुण्यमय दिव्य सरोवर की ओर प्रस्थित हुए, जिसकी ओर जाने के लिये महादेव जी ने स्वयं ही संकेत किया था। वे दोनों नर-नारायण ऋषि बिना किसी घबराहट के वहाँ जा पहुँचे। (8-9)
  • उस सरोवर के तट पर पहुँचकर अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों ने जल के भीतर एक भयंकर नाग देखा, जो सूर्यमण्डल के समान प्रकाशित हो रहा था। (10)
  • वहीं उन्होंने अग्नि के समान तेजस्वी और सहस्र फणों से युक्त दूसरा श्रेष्ठ नाग भी देखा, जो अपने मुख से आग की प्रचण्ड ज्वालाएँ उगल रहा था। (11)
  • तब श्रीकृष्ण और अर्जुन जल से आचमन करके हाथ जोड़ भगवान शंकर को प्रणाम करते हुए उन दोनों नागों के निकट खड़े हो गये। (12)
  • वे दोनों ही वेदों के विद्वान थे। अतः उन्होंने शतरुद्री मन्त्रों का पाठ करते हुए साक्षात ब्रह्मस्वरूप अप्रमेय शिव की सब प्रकार से शरण लेकर उन्हें प्रणाम किया। (13)
  • तदनन्तर भगवान शंकर की महिमा से वे दोनों महानाग अपने उस रूप को छोड़कर दो शत्रुनाशक धनुष-बाण के रूप में परिणत हो गये। (14)
  • उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उस प्रकाशमान धनुष और बाण को हाथ में ले लिया। फिर वे उन्हें महादेव जी के पास ले आये और उन्हीं महात्मा के हाथों में अर्पित कर दिया। (15)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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