अष्टाविंशत्यधिकशततम (128) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
सोमक ने कहा- ब्रह्मन! जो-जो कार्य जैसे-जैसे करना हो, वह उसी प्रकार कीजिये। मैं पुत्र की कामना से आपकी समस्त आज्ञाओं का पालन करूंगा। लोमश जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तब पुरोहित ने राजा सोमक से जन्तु की बलि देकर किये जाने वाले यज्ञ को आरम्भ करवाया। उस समय करुणामयी माताएं अत्यन्त शोक से व्याकुल हो, ‘हाय! हम मारी गयीं’ ऐसा कहकर रोती हुईं अपने पुत्र जन्तु को बलपूर्वक अपनी ओर खींच रही थीं। वे करुण स्वर में रोती हुईं बालक के दाहिने हाथ को पकड़कर खींचती थीं और पुरोहित जी उसके बायें हाथ को पकड़कर अपनी ओर खींच रहे थे। सब रानियाँ शोक से आतुर हो कुररी पक्षी की भाँति विलाप कर रही थीं और पुरोहित ने उस बालक को छीनकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले तथा विधिपूर्वक उसकी चर्बियों की आहूति दी। कुरुनन्दन! चर्बी की आहूति के समय बालक की माताएं धूँए की गन्ध सूंघकर सहसा शोकपीड़ित हो पृथ्वी पर गिर पड़ीं। तदनन्तर वे सब सुन्दरी रानियां गर्भवती हो गयीं। युधिष्ठिर! तदनन्तर दस मास बीतने पर उन सबके गर्भ से राजा सोमक के सौ पुत्र हुए। राजन! सोमक का ज्येष्ठ पुत्र जन्तु अपनी माता के गर्भ से प्रकट हुआ, वही उन सब रानियों को विशेष प्रिय था। उन्हें अपने पुत्र उतने प्यारे नहीं लगते थे। उसकी दाहिनी पसली में पूर्वोक्त की भाँति सुनहरा चिह्न स्पष्ट दिखायी देता था। राजा के सौ पुत्रों में अवस्था और गुणों की दृष्टि से भी वही श्रेष्ठ था। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात सोमक के पुरोहित परलोकवासी हो गये। थोड़े ही दिनों के बाद राजा सोमक भी परलोकवासी हो गसे। यमलोक में जाने पर सोमक ने देखा, पुरोहित जी घोर नरक की आग में पकाये जा रहे हैं। उन्हें उस अवस्था में देखकर सोमक ने पूछा- ‘ब्रह्मन! आप नरक की आग में कैसे पकाये जा रहे हैं?' तब नरकाग्नि से अधिक संतप्त होते हुए पुरोहित ने कहा- ‘राजन! मैंने तुम्हें जो (तुम्हारे पुत्र की आहूति देकर) यज्ञ करवाया था, उसी कर्म का फल है।’ यह सुनकर राजर्षि सोमक ने धर्मराज से कहा- ‘भगवन! मैं इस नरक में प्रवेश करूंगा। आप मेरे पुरोहित को छोड़ दीजिये। वे महाभाग मेरे ही कारण नरकाग्नि में पक रहे हैं। अत: मैं अपने आपको नरक में रखूंगा, परंतु मेरे गुरु जी को उससे छुटकारा मिल जाना चाहिये’। धर्म ने कहा- राजन! कर्ता के सिवा दूसरा कोई उसके किये हुए कर्मों का फल कभी नहीं भोगता है। वक्ताओं में श्रेष्ठ महाराज! तुम्हें अपने पुण्य कर्मों के फलस्वरूप जो ये पुण्यलोक प्राप्त हुए हैं, प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। सोमक बोले- धर्मराज! मैं अपने वेदवेत्ता पुरोहित के बिना पुण्यलोकों मे जाने कि इच्छा नहीं रखता। स्वर्गलोक हो या नरक- मैं कहीं भी इन्हीं के साथ रहना चाहता हूँ। देव! मेरे पुण्य कर्मों पर इनका मेरे समान ही अधिकार है। हम दोनों को यह पुण्य और पाप का फल समान रूप से मिलना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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