द्वयशीतितम (82) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इसके बाद वह घोड़ा समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके उस दिशा की ओर मुंह करके लौटा, जिस ओर हस्तिनापुर था। किरीटधारी अर्जुन भी घोड़े का अनुसरण करते हुए लौट पड़े और दैवेच्छा से राजगृह नामक नगर में आ पहुँचे। प्रभो! अर्जुन को अपने नगर के निकट आया देख क्षत्रिय-धर्म में स्थित हुए वीर सहदेवकुमार राजा मेघसन्धि ने उन्हें युद्ध के लिये आमंत्रित किया। तत्पश्चात स्वयं भी धनुष-बाण और दस्ताने से सुसज्जित हो रथ पर बैठकर नगर से बाहर निकला। मेघ सन्धि ने पैदल आते हुए धनंजय पर धावा किया। महाराज! धनंजय के पास पहुँचकर महातेजस्वी मेघसन्धि ने बुद्धिमानी के कारण नहीं, मूर्खतावश निम्नांकित बात कही- ‘भरतनन्दन! इस घोड़े के पीछे क्यों फिर रहे हो! यह तो ऐसा जान पड़ता है, मानो स्त्रियों के बीच चल रहा हो। मैं तो इसका अपहरण कर रहा हूँ। तुम इसे छुड़ाने का प्रयत्न करो। यदि युद्ध में मेरे पिता आदि पूर्वजों ने कभी तुम्हारा स्वागत-सत्कार नहीं किया है तो आज मैं इस कमी को पूर्ण करूँगा। युद्ध के मैदान में तुम्हारा यथोचित आतिथ्य-सत्कार करूँगा। पहले मुझ पर प्रहार करो, फिर मैं तुम पर प्रहार करूंगा।' उसके ऐसा कहने पर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उसे हंसते हुए- से इस प्रकार उत्तर दिया- ‘नरेश्वर! मेरे बड़े भाई ने मेरे लिये इस व्रत की दीक्षा दिलायी है कि जो मेरे मार्ग में विघ्न डालने को उद्यत हो, उसे रोको। निश्चय ही यह बात तुम्हें भी विदित है। अत: तुम अपनी शक्ति के अनुसार मुझ पर प्रहार करो। मेरे मन में तुम पर कोई रोष नहीं है।’ अर्जुन के ऐसा कहने पर मगधनरेश ने पहले उन पर प्रहार किया। जैसे सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार मेघसन्धि अर्जुन पर सहस्त्रों बाणों की झड़ी लगाने लगा। भरतश्रेष्ठ! तब गाण्डीवधारी अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छोड़े गये बाणों द्वारा मेघसन्धि के प्रयत्नपूर्वक चलाये गये उन सभी बाणों को व्यर्थ कर दिया। शत्रु के बाण समूहों को निष्फल करके कपिध्वज अर्जुन ने प्रज्वलित बाण का प्रहार किया। वे बाण मुख से आग उगलने वाले सर्पों के समान जान पड़ते थे। उन्होंने मेघ सन्धि की ध्वजा, पताका, दण्ड, रथ, यन्त्र, अश्व तथा रथांगों पर बाण मारे; परन्तु उसके शरीर और सारथि पर प्रहार नहीं किया। यद्यपि सव्यसाची अर्जुन ने जान-बूझकर उसके शरीर की रक्षा की तथापि मगधराज इसे अपना पराक्रम समझने लगा और अर्जुन पर लगातार बाणों का प्रहार करता रहा। मगधराज के बाणों से अत्यन्त घायल होकर गाण्डीवधारी अर्जुन रक्त से नहा उठे। उस समय वे वसन्त-ऋतु में फूले हुए पलाश वृक्ष की भाँति सुशोभित हो रहे थे। कुरुनन्दन! अर्जुन तो उसे मार नहीं रहे थे, परंतु वह उन पाण्डव शिरोमणि पर बारंबार चोट कर रहा था। इसीलिये विश्वविख्यात वीर अर्जुन की दृष्टि में वह तब तक ठहर सका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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