द्वादशाधिकशततम (212) अध्याय: आदि पर्व (अर्जुनवनवास पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार नियम बनाकर पाण्डव लोग वहाँ रहने लगे। वे अपने अस्त्र-शस्त्रों के प्रताप से दूसरे राजाओं को अधीन करते रहते थे। कृष्णा मनुष्यों में सिंह के समान वीर और अमित तेजस्वी उन पांचों पाण्डवों की आज्ञा के अधीन रहती थी। पाण्डव द्रौपदी के साथ और द्रौपदी उन पांचों वीर पतियों के साथ ठीक उसी तरह अत्यन्त प्रसन्न रहती थी जैसे नागों के रहने से भोगवती पुरी परमशोभायुक्त होती है। महात्मा पाण्डवों के धर्मानुसार बर्ताव करने पर समस्त कुरुवंशी निर्दोष एवं सुखी रहकर निरन्तर उन्नति करने लगे। महाराज! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् एक दिन कुछ चोरों ने किसी ब्राह्मण की गौएं चुरा लीं। अपने गो धन का अपहरण होता देख ब्राह्मण अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और खाण्डवप्रस्थ में आकर उसने उच्चस्वर से पाण्डवों को पुकारा। ‘पाण्डवों! हमारे गांव से कुछ नीच, क्रूर और पापात्मा चोर जबरदस्ती गो धन चुराकर लिये जा रहे हैं। उसकी रक्षा के लिये दौड़ो। आज एक शान्तस्वभाव ब्राह्मण का हविष्य कौए लौटकर खा रहे हैं। नीच सियार सिंह की सूनी गुफा को रौंद रहा है। जो राजा प्रजा की आय का छटा भाग कर के रुप में वसूल करता हैं, किंतु प्रजा की रक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करता, उसे सम्पूर्ण लोकों में पूर्ण पापाचारी कहा गया है। मुझ ब्राह्मण का धन चोर लिये जा रहे हैं, मेरे गौ के न रहने पर दुग्ध आदि हविष्य के अभाव से धर्म और अर्थ का लोप हो रहा है तथा मैं वहाँ आकर रो रहा हूँ। पाण्डवो! (चोरों को दण्ड देने के लिये) अस्त्र धारण करो।’ वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वह ब्राह्मण निकट आकर बहुत रो रहा था। पाण्डुपुत्र कुन्तीनन्दन धनंजय ने उसकी कही हुई सारी बातें सुनी और सुनकर उन महाबाहु ने उस ब्राह्मण से कहा- ‘डरो मत’। महात्मा पाण्डवों के अस्त्र-शस्त्र जहाँ रखे गये थे, वहाँ धर्मराज युधिष्ठिर कृष्णा के साथ एकान्त में बैठे थे। अत: पाण्डुपुत्र अर्जुन न तो घर के भीतर प्रवेश कर सकते थे। और न खाली हाथ चोरों का पीछा कर सकते थे। इधर उस आर्त ब्राह्मण की बातें उन्हें बार-बार शस्त्र ले आने को प्रेरित कर रही थीं। जब वह अधिक रोने-चिल्लाने लगा, तब अर्जुन ने दुखी होकर सोचा- ‘इस तपस्वी ब्राह्मण के गो धन का अपहरण हो रहा है; अत: ऐसे समय में इसके आंसू पोंछना मेरा कर्तव्य है। यही मेरा निश्चय है। यदि मैं राजद्वार पर रोते हुए इस ब्राह्मण की रक्षा आज नहीं करुंगा, तो महाराज [[युधिष्ठिर] को उपेक्षाजनित महान् अधर्म का भागी होना पड़ेगा। इसके सिवा लोक में यह बात फैल जायगी कि हम सब लोग किसी आर्त की रक्षा रुप धर्म के पालन में श्रद्धा नहीं रखते। साथ ही हमें अधर्म भी प्राप्त होगा। यदि राजा का अनादर करके मैं घर के भीतर चला जाउं, तो महाराज अजातशत्रु के प्रति मेरी प्रतिज्ञा मिथ्या होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज