महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-23

तृतीय (3) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

सात्यकि ने कहा- बलरामजी! मनुष्य का जैसा हृदय होता है, वैसी ही बात उसके मुख से निकलती है। आपका भी जैसा अंत:करण है, वैसा ही आप भाषण दे रहे हैं। संसार में शूर-वीर पुरुष भी हैं और कापुरुष (कायर) भी। पुरुषों में ये दोनों पक्ष निश्चित रूप से देखे जाते हैं। जैसे एक ही वृक्ष में कोई शाखा फलवती होती है ओर कोई फलहीन। इसी प्रकार एक ही कुल में दो प्रकार की संतान उतपन्न होती है, एक नपुंसक ओर दूसरी महान बलशाली। अपनी ध्वजा में हल चिह्न धारण करने वाले मधुकुल-रत्न! आप जो कुछ कह रहे हैं उसमें दोष नहीं निकाल रहा हूँ, जो लोग आपकी बातें चुप-चाप सुन रहे हैं, उन्‍हीं को मैं दोषी मानता हूँ।

भला कोई भी मनुष्य भरी सभा में निर्भय होकर धर्म-राज युधिष्ठिर पर थोड़ा-सा भी दोषारोपण करे, तो वह कैसे बोलने का अवसर पा सकता है। महात्मा युधिष्ठिर जूआ खेलना नहीं चाहते थे, तो भी जूए के खेल में निपुण धूर्तों ने उन्हें अपने घर बुलाकर अपने विश्वास के अनुसार हराया अथवा जीता है। यह इनकी धर्मपूर्वक विजय कैसे कही जा सकती है? यदि भाईयों सहित कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने घर पर जूआ खेलते होते और ये कौरव वहाँ जाकर उन्हें हरा देते, तो वह उनकी धर्मपूर्वक विजय कही जा सकती थी। परन्तु उन्होंने सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले राजा युधिष्ठिर को बुलाकर छल और कपट से उन्हें पराजित किया है। क्या यही उनका परम कल्याणमय कर्म कहा जा सकता है? ये राजा युधिष्ठिर अपनी वनवासविषयक प्रतिज्ञा तो पूर्ण ही कर चुके हैं, अब किस लिये उनके आगे मस्तक झुकायें-क्यों प्रणाम अथवा विनय करें।

वनवास के बन्धन से मुक्त होकर अब ये अपने बाप-दादों के राज्य को पाने के न्यायतः अधिकारी हो गये हैं। यदि युधिष्ठिर अन्याय से भी अपना धन, अपना राज्य लेने की इच्‍छा करें, तो भी अत्यन्त दीन बनकर शत्रुओं के सामने हाथ फैलाने या भीख माँगने योग्य नहीं हैं। कुन्ती के पुत्र वनवास की अवधि पूरी करके जब लौटे हैं, तब कौरव यह कहने लगे हैं कि हमने तो इन्हें समय पूर्ण होने से पहले ही पहचान लिया है। ऐसी दशा में यह कैसे कहा जाय कि कौरव धर्म में तत्पर हैं और पाण्डवों के राज्य का अपहरण नहीं करना चाहते हैं। वे भीष्म, द्रोण और विदुर के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी पाण्‍डवों को उनका पैतृक धन वापस देने का निश्चय अथवा प्रयास नहीं कर रहे हैं। मैं तो रणभूमि में पैने बाणों से उन्‍हें बलपूर्वक मनाकर महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के चरणों में गिरा दूँगा। यदि वे परम बुद्धिमान युधिष्ठिर के चरणों में गिरने का निश्चय नहीं करेंगे, तो अपने मन्त्रियों सहित उन्‍हें यमलोक की यात्रा करनी पड़ेगी। जैसे बड़े बडे़ पर्वत भी वज्र का वेग सहन करने में समर्थ नहीं हैं, उसी प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले और क्रोध में भरे हुए मुझ सात्यकि के प्रहार-वेग को सहन करने की सामर्थ्‍य उनमें से किसी में भी नहीं है।

कौरव दल में ऐसा कौंन है, जो जीवन की इच्‍छा रखते हुए भी युद्ध भूमि में गाण्डीवधन्वा अर्जुन, चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, क्रोध में भरे हुए मुझ सात्यकि, दुर्धर्ष वीर भीमसेन, यम और काल के समान तेजस्वी दृढ़ धनुर्धर नकुल-सहदेव, यम और काल को भी अपने तेज से तिरस्कृत करने वाले वीरवर विराट और द्रुपद का द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न का भी सामना कर सकता है? द्रौपदी की कीर्ति को बढ़ाने वाले ये पाँचों पाण्डव कुमार अपने पिता के समान ही डील-डौल वाले, वैसे ही पराक्रमी तथा उन्हीं के समान रणोन्मत्‍त शूरवीर हैं। महान धर्नुधर सुभद्रा कुमार अभिमन्यु का वेग तो देवताओं के लिए भी दुःसह है, गद, प्रद्युम्न और साम्ब- ये काल, सूर्य और अग्नि के समान अजेय हैं- इन सबका सामना कौन कर सकता है?

हम लोग शकुनि सहित धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को तथा कर्ण को भी युद्ध में मारकर पाण्डुनन्दन यूधिष्ठिर का राज्याभिषेक करेंगे। आततायी शत्रुओं का वध करने में कोई पाप नहीं है शत्रुओं के सामने याचना करना ही अर्धम और अपयश की बात है। अतः पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर के मन में जो अभिलाषा है, उसी की आप लोग आलस्य छोड़कर सिद्धि करें। धृतराष्ट्र राज्य लौटा दें और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर उसे ग्रहण करें। अब पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को राज्य मिल जाना चाहिये, अन्यथा समस्त कौरव युद्ध में मारे जाकर रणभूमि में सदा के लिये सो जायँगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व कें अन्तर्गत में सात्यकिका क्रोधपूर्ण वचन सम्बन्धी तीसरा अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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