महाभारत वन पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-17

द्विनवतितम (92) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


महर्षि लोमश के मुख से इन्द्र और अर्जुन का संदेश सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना और तीर्थयात्रा के लिये उद्यत हो अपने अधिक साथियों को विदा करना

लोमश मुनि कहते हैं- युधिष्ठिर! जब मैं आने लगा, तब अर्जुन ने भी मुझसे जो बात कही थी, वह सुनो। वे बोले- ‘तपोधन! आप मेरे बड़े भैया युधिष्ठिर को धर्मानुकूल राजलक्ष्मी से संयुक्त कीजिये। आप उत्कृष्ट धर्मों और तपस्याओं को जानते हैं। श्रीसम्पन्न राजाओं का जो सनातन धर्म है, उसका भी आपको पूर्ण ज्ञान है। पुरुष को पवित्र बनाने वाला जो उत्तम साधन है, उसे आप जानते हैं। अतः आप पाण्डवों को तीर्थयात्रा सहित पुण्य से सम्पन्न कीजिये। महाराज युधिष्ठिर जिस प्रकार तीर्थों में जायें और वहाँ गोदान करें, वैसा सब प्रकार से प्रयत्न कीजियेगा।’ यह बात अर्जुन ने मुझसे कही थी। उन्होंने यह भी कहा- ‘महाराज युधिष्ठिर आपसे सुरक्षित रहकर सब तीर्थों में विचरण करें। दुर्गम स्थानों और विषम अवसरों में आप राक्षसों से उनकी रक्षा करें। द्विजश्रेष्ठ! जैसे दधीच ने देवराज इन्द्र की और महर्षि अंगिरा ने सूर्य की रक्षा की है, उसी प्रकार आप राक्षसों से कुन्तीकुमारों की रक्षा कीजिये। बहुत-से पिशाच तथा राक्षस, जो पर्वतों के समान विशालकाय हैं, आपसे सुरक्षित राजा युधिष्ठिर के पास नहीं आ सकेंगे’।

राजन्! इस प्रकार में इन्द्र के कथन और अर्जुन के अनुरोध से सब प्रकार के भय से तुम्हारी रक्षा करते हुए तुम्हारे साथ-साथ तीर्थों में विचरण करूंगा। कुरुनन्दन! पहले दो बार मैंने सब तीर्थों के दर्शन कर लिये; अब तीसरी बार तुम्हारे साथ पुनः उनका दर्शन करूंगा। महाराज युधिष्ठिर! यह तीर्थयात्रा सब प्रकार के भय का नाश करने वाली है। मनु आदि पुण्यात्मा राजर्षियों ने इस तीर्थयात्रारूपी धर्म का पालन किया है। कुरुनन्दन! जो सरल नहीं है, जिसने अपने मन और इन्द्रियों का वश में नहीं किया है, जो विद्याहीन और पापात्मा है तथा जिसकी बुद्धि कुटिलता से भरी हुई है, ऐसा मनुष्य (श्रद्धा न होने के कारण) तीर्थों में स्नान नहीं करता। तुम तो सदा धर्म में मन लगाये रखने वाले, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और सब प्रकार की आसक्तियों से शून्य हो और आगे भी तुममें अधिकाधिक इन गुणों का विकास होगा। कुन्तीकुमार पाण्डुनन्दन! जैसे राजा भागीरथ हो गये हैं, जैसे गय आदि राजर्षि हो चुके हैं तथा जैसे महाराज ययाति हुए हैं, वैसे ही तुम भी विख्यात हो।'

युधिष्ठिर बोले- महर्षे! आपके दर्शन और आपकी बातों को सुनने से मुझे इतना अधिक हर्ष हुआ है कि मुझे इन वचनों का कोई उत्तर नहीं सूझता। देवराज इन्द्र जिसका स्मरण करते हों, उससे बढ़कर इस संसार में कौन है? जिसे आपका संग प्राप्त हो, जिसके अर्जुन जैसा भाई हो और जिसे इन्द्र याद करते हों, उससे बढ़कर सौभाग्यशाली और कौन है? भगवन्! आपने मुझे तीर्थों के दर्शन के लिये जो उत्साह प्रदान किया है, वह ठीक है। मैंने पहले से ही धौम्य जी के आदेश से तीर्थों में जाने का विचार कर रखा है। अतः ब्रह्मन्! आप जब ठीक समझें, तभी मैं तीर्थों के दर्शन के लिये चल दूंगा; यही मेरा अंतिम निश्चय है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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