विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 1 का हिन्दी अनुवाद
श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह, दोनों पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद तथा गार्हस्थ्य-धर्म का पालन करते हुए ही उनका परमात्मा को प्राप्त होना एवं दम की महिमा का वर्णन युधिष्ठिर ने कहा- महाप्राज्ञ! प्रभो! यदि कोई ऐसा पुरुष हो, जो गृहस्थ आश्रम में पत्नी सहित संयम-नियम के साथ रहता हो, समस्त सांसरिक बन्धनों को पार कर चुका हो और सम्पूर्ण द्वन्द्वों से दूर रहकर उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करता हो तो उसका मुझे परिचय दीजिये, क्योंकि ऐसा महापुरुष दुर्लभ होता है। भीष्म जी ने कहा- राजन! तुमने मुझसे जो विषय पूछा है, उसे यथावत् रूप से सुनो। यह विशुद्ध इतिहास जन्म मरणरूप रोग का भय दूर करने के लिये उत्तम औषध है। ब्रह्मर्षि देवल का नाम सर्वत्र प्रसिद्ध है। वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण, क्रियानिष्ठ, धार्मिक तथा देवताओं और ब्राह्मणों की सदा पूजा करने वाले थे। उनके एक पुत्री थी, जो सुवर्चला के नाम से पुकारी जाती थी। वह यशस्विनी कन्या सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न थी। वह न तो अधिक नाटी थी और न अधिक लंबी, वह विशेष दुबली भी नहीं थी। धीरे-धीरे उसकी विवाह के योग्य अवस्था हो गयी। उसके पिता सोचने लगे, मेरी इस पुत्री का पति श्रेष्ठ श्रोत्रिय ब्राह्मण होना चाहिये, जो विद्वान होने के साथ ही प्रिय वचन बोलने वाला, महातपस्वी और अविवाहित हो; परंतु ऐसा पुरुष कहाँ से सुलभ हो सकता है? एकान्त में बैठकर ऐसी ही चिन्ता में पड़े हुए पिता के पास जाकर सुवर्चला ने इस प्रकार कहा- ‘पिताजी! आप परम बुद्धिमान, विद्वान और मुनि हैं। आप मुझे ऐसे पति के हाथ में सौंपियेगा, जो अन्धा भी हो और आँखवाला भी हो। मेरी इस प्रार्थना को सदा या रखियेगा’। पिता बोले- बेटी! तुम्हारी यह प्रार्थना पूर्ण हो सके, ऐसा तो मुझे नहीं प्रतीत होता है; क्योंकि एक ही व्यक्ति अन्धा भी हो और अन्धा न भी हो, यह कैसे सम्भव है? तुम्हारी यह बात सुनकर मेरे मन में खेद होता है। शुभलोचने! तुम पगली सी होकर अशुभ बात मुँह से निकाल रही हो। सुवर्चला बोली- पिताजी! मैं पगली नहीं हूँ। खूब सोच-समझकर आपसे ऐसी बात कह रही हूँ। यदि ऐसा कोई वेदवेत्ता पति प्राप्त हो जाय तो वह मेरा भरण-पोषण कर सकता है। आप जिन ब्राह्मणों के हाथ में मुझे देना चाहते हैं, उन सबको यहाँ बुलवा लीजिये। मैं उन्हीं में से अपनी पंसद के अनुसार योग्य पति का वरण कर लूँगी। तब अपनी पुत्री से ‘तथास्तु‘ कहकर ऋषि ने शिष्यों से कहा- ‘शिष्यगण! जो वेदविद्या से सम्पन्न, निष्कलंक माता-पिता से उत्पन्न, निर्दोष कुल के बालक, शुद्ध आचार-विचार वाले, शुभ लक्षणों से युक्त, नीरोग, बुद्धिमान, शील और सत्त्व से सम्पन्न, गोत्रों में वर्णसंकरता के दोष से रहित, वेदोक्त व्रत के पालन में तत्पर, स्नातक, जीवित माता--वाले तथा कन्या से विवाह की इच्छा रखने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण हों, उन सबको देखकर तुमलोग यहाँ शीघ्र बुला ले आओ।’ मुनि की यह बात सुनकर उनके शिष्यों ने तुरंत इधर-उधर आश्रमों तथा गाँवों में जाकर ब्राह्मणों को इसकी सूचना दी। राजन! ऋषि और उस कन्या के प्रभाव को जानकर अनेक श्रेष्ठ ब्राह्मण महर्षि देवल के आश्रम पर आये। कन्या के महान पिता देवल ने वहाँ आये हुए ऋषियों तथा ऋषिकुमारों का यथायोग्य सम्मान तथा विधिपूर्वक पूजन करके अपनी पुत्री से कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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