महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-13

द्विपंचाशत्तम (52) अध्‍याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्‍ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन

  • धृतराष्‍ट्र बोले- संजय! जिनके मुँह से कभी कोई झूठ बात निकलती हमने नहीं सुनी है तथा जिनके पक्ष में धनंजय जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर को [1] तीनों लोकों का राज्य भी प्राप्त हो सकता है। (1)
  • मैं निरन्तर सोचने-विचारने पर भी युद्ध में गाण्‍डीवधारी अर्जुन का ही सामना करने वाले किसी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो रथ पर आरुढ़ हो उनके सम्मुख जा सके। (2)
  • जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाली कर्णी और नालीक आदि बाणों की निरन्तर वर्षा करते हैं, उन गाण्‍डीवधन्वा अर्जुन का युद्ध में सामना करने वाला कोई भी समकक्ष योद्धा नहीं है। (3)
  • यदि बलवानों में श्रेष्‍ठ, अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान तथा युद्ध में कभी पराजित न होने वाले, मनुष्‍यों में अग्रगण्‍य वीरवर द्रोणाचार्य और कर्ण अर्जुन पर विजय प्राप्त होने में महान संदेह रहेगा। मैं तो देखता हूँ मेरी विजय होगी ही नहीं, क्योंकि कर्ण दयालु और प्रमादी है और आचार्य द्रोण वृद्ध होने के साथ ही अर्जुन के गुरु हैं। (4-5)
  • कुन्तीपुत्र अर्जुन समर्थ और बलवान है। उनका धनुष भी सुदृढ़ है। वे आलस्य और थकावट को जीत चुके हैं, अत: उनके सा‍थ जो अत्यन्त भयंकर युद्ध छिडे़गा, उसमें सब प्रकार से उनकी ही विजय होगी। (6)
  • समस्त पाण्‍डव अस्त्रविद्या के ज्ञाता, शूरवीर तथा महान यश को प्राप्त हैं। वे समस्त देवताओं का ऐश्वर्य छोड़ सकते हैं, परंतु अपनी विजय से मुँह नहीं मोडे़ंगे। (7)
  • निश्‍चय ही द्रोणाचार्य और कर्ण का वध हो जाने पर हमारे पक्ष के लोग शान्त हो जायंगे अथवा अर्जुन के मारे जाने पर पाण्‍डव शान्त हो बैठेंगे, परंतु अर्जुन का वध करने वाला तो कोई है ही नहीं, उन्हें जीतने वाला भी संसार में कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रों के प्रति उनके हृदय में जो क्रोध जाग उठा है, वह कैसे शान्त होगा? (8)
  • दूसरे योद्धा भी अस्त्र चलाना जानते हैं, परंतु वे कभी हारते हैं और कभी जीतते भी हैं। केवल अर्जुन ही ऐसे हैं, जिनकी निरन्तर विजय ही सुनी जाती है। (9)
  • खाण्‍डवदाह के समय अर्जुन ने मुख्‍य-मुख्‍य तैंतीस[2] देवताओं को युद्ध के लिये ललकार कर अग्निदेव को तृप्त किया और सभी देवताओं को जीत लिया। उनकी कभी पराजय हुई हो, इसका पता हमें आज तक नहीं लगा। (10)
  • तात! साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण, जिनका स्वभाव और आचार-व्यवहार भी अर्जुन के ही समान है, अर्जुन का रथ हांकते हैं, अत: इन्द्र की विजय की भाँति उनकी भी विजय निश्चित है। (11)
  • श्रीकृष्‍ण और अर्जुन एक रथ पर उपस्थित हैं और गाण्‍डीव धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ी हुई है, इस प्रकार ये तीनों तेज एक ही सा‍थ एकत्र हो गये हैं, यह हमारे सुनने में आया है। (12)
  • हम लोगों के यहाँ न तो वैसा धनुष है, न अर्जुन जैसा पराक्रमी योद्धा है और न श्रीकृष्ण के समान सारथि ही है, परंतु दुर्योधन के वशीभूत हुए मेरे मूर्ख पुत्र इस बात को नहीं समझ पाते। (13)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भूमण्‍डल का कौन कहे
  2. कुछ विद्वान् ‘त्रयस्त्रिशत् समाअअहूय’ ऐसा पाठ मानकर आर्ष संधि की कल्पना करके यह अर्थ करते है कि तैंतीस वर्ष की अवस्था बीत जाने पर अर्जुन ने अग्निदेव को खाण्‍डव वन में बुलाकर तृप्त किया था।’

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