षट्सप्तत्यधिकशततम (176) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: षट्सप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
उस समय (पुत्रवधुओं के संतोष के लिये) उन्होंने शोकबुद्धि कर ली थी, इसलिये वे किसी एक स्थान में नहीं ठहरते थे, पर्वतों, नदियों और सरोवरों के तट पर चक्कर लगाते रहते थे। (इस तरह घूमते-घूमते महर्षि ने पुन: हिमालय पर्वत से निकली हुई एक भयंकर नदी को देखा, जिसमें बड़े प्रचण्ड ग्राह रहते थे। उन्होंने फिर उसी की प्रखर धारा में अपने-आपको डाल दिया। वह श्रेष्ठ नदी ब्रह्मर्षि वसिष्ठ को अग्नि के समान तेजस्वी जान सैकड़ों धाराओं में फूटकर इधर-उधर भाग चली। इसीलिये वह शतद्र नाम से विख्यात हुई। वहाँ भी अपने को स्वयं ही स्थल में पड़ा देख मैं मर नहीं सकता यों कहकर वे फिर अपने आश्रम पर ही चले गये। इस तरह नाना प्रकार के पर्वतों और बहुसंख्यक देशों में भ्रमण करके वे पुन: जब अपने आश्रम के समीप आये, उस समय उनकी पुत्रवधु अदृश्यन्ती उनके पीछे हो ली। मुनि को पीछे की ओर से संगतिपूर्वक छहों अंगो में अंलकृत तथा स्फूट अर्थों से युक्त वेदमन्त्रों के अध्ययन का शब्द सुन पड़ा। तब उन्होंने पूछा- मेरे पीछे पीछे कौन आ रहा है। उक्त पुत्रवधु ने उत्तर दिया, महाभाग! मैं तप में ही संलग्न रहने वाली महर्षि शक्ति की अनाथ पत्नी अदृश्यन्ती हूँ। वसिष्ठ जी ने पूछा- बेटी! पहले शक्ति के मुंह से मैं अंगों सहित वेद का जैसा पाठ सुना करता था, ठीक उसी प्रकार यह किसके द्वारा किये हुए सांग वेद के अध्ययन की ध्वनि मेरे कानों में आ रही हैं? अदृश्यन्ती बोले- भगवन्! वह मेरे उदर में उत्पन्न ही वेदाभ्यास करते बारह वर्ष हो गये हैं। गन्धर्व कहता है- अर्जुन! अद्दश्यन्ती के यों कहने पर भगवान पुरुषोत्तम का भजन करने वाले महर्षि वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए और मेरी वंश परम्परा का लोप नहीं हुआ है, यों कहकर मन के संकल्प से विरत हो गये। अनघ! तब वे अपनी पुत्रवधु के साथ आश्रम की ओर लौटने लगे। इतने में ही मुनि ने निर्जन वन में बैठै हुए राजा कल्माषपाद को देखा। भारत! भयानक राक्षस ने आविष्ट हुए राजा कल्माषपाद मुनि को देखते ही क्रोध में भरकर उठे और उसी समय उन्हें खा जाने को इच्छा करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज