महाभारत आदि पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-16

त्र्यधिकशततम (103) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: त्र्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


सत्यवती का भीष्‍म से राज्‍यग्रहण और संतानोत्पादन के लिये आग्रह तथा भीष्‍म के द्वारा अपनी प्रतिज्ञा बतलाते हुए उसकी अस्वीकृति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर पुत्र की इच्‍छा रखने वाली सत्यवती अपने पुत्र के वियोग से अत्यन्‍त दीन और कृपण हो गयी। उसने पुत्र वधुओं के साथ पुत्र के प्रेतकार्य करके अपनी दोनों बहुओं तथा शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्‍म जी को धीरज बंधाया। फि‍र उस महाभागा मंगलमयी देवी नेधर्म, पितृकुल तथा मातृकुल की ओर देखकर गंगानन्‍दन भीष्‍म से कहा- ‘बेटा! सदा धर्म में तत्पर रहने वाले परमयशस्वी कुरुनन्‍दन महाराज शान्‍तनु के पिण्‍ड, कीर्ति और वंश ये सब अब तुम्ही पर अवलम्बित है। जैसे शुभ कर्म करके स्वर्गलोक में जाना निश्चित है’ जैसे सत्य बोलने से आयु का बढ़ना अवश्‍यम्भावी है, वैसे ही तुममें धर्म का होना भी निश्चित है। धर्मज्ञ! तुम सब धर्मों को संक्षेप और विस्तार से जानते हो। नाना प्रकार की श्रुतियों और समस्त वेदांगों का भी तुम्हें पूर्ण ज्ञान है। मैं तुम्हारी धर्मनिष्ठा और कुलोचित सदाचार को भी देखती हूँ। संकट के समय शुक्राचार्य और बृहस्पति की भाँति तुम्हारी बुद्धि उपयुक्त कर्तव्‍य का निर्णय करने में समर्थ है। अत: धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्‍म! तुम पर अत्यन्‍त विश्वास रखकर ही मैं तुम्हें एक आवश्‍यक कार्य में लगाना चाहती हूँ। तुम पहले उसे सुन लो; फि‍र उसका पालन करने की चेष्टा करो। मेरा पुत्र और तुम्हारा भाई विचित्रवीर्य जो पराक्रमी होने के साथ ही तुम्हें अत्यन्‍त प्रिय था, छोटी अवस्था में ही स्वर्गवासी हो गया।

नरश्रेष्ठ! उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। तुम्हारे भाई की ये दोनों सुन्‍दरी रानियां, जो काशिराज की कन्‍याऐं हैं, मनोहर रुप और युवावस्था से सम्पन्न हैं। इनके हृदय में पुत्र पाने की अभिलाषा है। भारत! तुम हमारे कुल की संतान परम्परा को सुरक्षित रखने के लिये स्वयं ही इन दोनों के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करो! महाबाहो! मेरी आज्ञा से यह धर्म कार्य तुम अवश्‍य करो। राज्‍य पर अपना अभिषेक करो और भारतीय प्रजा का पालन करते रहो। धर्म के अनुसार विवाह कर लो; पितरों को नरक में न गिरने दो’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! माता और सुहृदों के ऐसा कहने पर शत्रुदमन धर्मात्मा भीष्‍म ने यह धर्मानुकूल उत्तर दिया- ‘माता! तुमने जो कुछ कहा है, वह धर्मयुक्त है, इसमें संशय नहीं; परंतु मैं राज्‍य के लोभ से न तो अपना अभिषेक कराऊंगा और न स्त्री सहवास ही करूंगा। संतानोत्पादन और राज्‍य ग्रहण ने करने के विषय में जो मेरी कठोर प्रतिज्ञा है, उसे तो तुम जानती ही हो। सत्यवती! तुम्हारे लिये शुल्‍क देने हेतु जो-जो बातें हुई थीं, वे सब तुम्हें ज्ञात हैं। उन प्रतिज्ञाओं को पुन: सच्ची करने के लिये मैं अपना दृढ़ निश्चय बताता हूँ। मैं तीनों लोकों का राज्‍य, देवताओं का साम्राज्‍य अथवा इन दोनों से भी अधिक महत्त्व की वस्तु को भी एकदम त्याग सकता हूं, परंतु सत्य को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता। पृथ्‍वी अपनी गंध छोड़ दे, जल अपने रस का परित्याग कर दे, तेज रुप का और वायु स्पर्श नामक स्वाभाविक गुण का त्याग कर दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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