महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 198 श्लोक 1-18

अष्‍टनवत्‍यधिकशततम (198) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: अष्‍टनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


सात्‍यकि और धृष्‍टधुम्न का परस्‍पर क्रोधपूर्वक वाग्‍बाणों से लड़ना तथा भीमसेन, सहदेव और श्रीकृष्‍ण एवं युधिष्ठिर के प्रयत्‍न से उनका निवारण


धृतराष्ट्र बोले- संजय! जिन महात्मा ने विधिपूर्वक अंगों सहित सम्‍पूर्ण वेदों का अध्‍ययन किया था, जिन लज्‍जाशील सत्‍पुरुष में साक्षात धुनर्वेद प्रतिष्ठित था, जिनके कृपाप्रसाद से कितने ही पुरुषरत्‍न योद्धा संग्रामभूमि में ऐसे-ऐसे अलौकिक पराक्रम कर दिखाते थे, जो देवताओं के लिये भी दुष्कर थे, उन्‍हीं द्रोणाचार्य की वह पापी, नीच, नृशंस, क्षुद्र क्षौर गुरुघाती धृष्टद्युम्न सबके सामने निन्‍दा कर रहा था और लोग क्रोध नहीं प्रकट करते थे। धिक्‍कार है ऐसे क्षत्रियों को! और धिक्‍कार है उनके अमर्षशील स्‍वभाव को!।

संजय! भूमण्‍डल के जो-जो धनुर्धर नरेश वहाँ उपस्थित थे, उन सबने तथा कुन्ती के पुत्रों ने धृष्टद्युम्न की बात सुनकर उससे क्‍या कहा? यह मुझे बताओ।

संजय ने कहा- प्रजानाथ! क्रूरकर्मा द्रुपदपुत्र की वे बातें सुनकर वहाँ बैठे हुए सभी नरेश मौन रह गये। केवल अर्जुन टेढ़ी नजरों से उसकी ओर देखकर आंसू बहाते हुए दीर्घ नि:श्‍वास ले इतना ही बोले कि- धिक्‍कार है! धिक्‍कार है!। राजन! उस समय युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्‍ण तथा अन्‍य लोग भी अत्‍यंत लज्जि‍त हो चुप ही बैठे रहे, परंतु सात्‍यकि इस प्रकार बोल उठे- क्‍या यहाँ कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो इस प्रकार अभद्रतापूर्ण वचन बोलने वाले इस पापी नराधम को शीघ्र ही मार डाले। धृष्टद्युम्न! जैसे ब्राह्मण चाण्‍डाल की निन्‍दा करते है, उसी प्रकार ये समस्‍त पाण्‍डव उस पापकर्म के कारण अत्‍यन्‍त घृणा प्रकट करते हुए तेरी निन्‍दा कर रहें हैं। यह महान पाप करने तू समस्‍त श्रेष्ठ पुरुषों की दृष्टि में निन्‍दा का पात्र बन गया है।

साधु पुरुषों की इस सुन्‍दर सभा में पहुँचकर ऐसी बातें करते हुए तुझे लज्‍जा कैसे नहीं आती है? तेरी जीभ के सैकड़ों टुकड़े क्‍यों नहीं हो जाते और तेरा मस्‍तक क्‍यों नहीं फट जाता? ओ नीच! गुरु की निन्‍दा करते हुए तेरा इस पाप से पतन क्‍यों नहीं हो जाता? तू पापकर्म करके जनसमाज में जो इस तरह अपनी बड़ाई कर रहा है, इसके कारण तू कुन्‍ती के सभी पुत्रों तथा अन्धक और वृष्णि वंश के यादवों द्वारा निन्‍दा के योग्‍य हो गया है। वैसा पापकर्म करके तू पुन: गुरु पर आक्षेप कर रहा है, अत: तू वध करने के ही योग्‍य है। एक मुहुर्त भी तेरे जीवित रहने का कोई प्रयोजन नहीं है। पुरुषाघम! तेरे सिवा दूसरा कोई कौन श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्‍मा सज्जन गुरु के केश पकड़कर उनके वध का विचार भी मन में लायेगा। तुझ-जैसे कुलांगार को पाकर तेरे सात पीढ़ी पहले के और सात पीढ़ी आगे होने वाले बन्‍धु-बान्‍धव नरक में डूब गये तथा सदा के लिये सुयश से वंचित हो गये। तूने जो कुन्‍तीकुमार अर्जुन पर नरश्रेष्ठ भीष्म के वध का दोष लगाया है, वह भी व्‍यर्थ ही है, क्‍योंकि महात्‍मा भीष्‍म ने स्‍वयं ही उसी प्रकार अपनी मृत्‍यु का विधान किया था। वास्‍तव में भीष्‍म का वध करने वाला भी तेरा महान पापाचारी भाई ही है, इस पृथ्‍वी पर पांचालराज के पुत्रों के सिवा दूसरा कोई ऐसा पाप करने वाला नहीं है। यह प्रसिद्ध है कि उसे भी तेरे पिता ने भीष्‍म का अन्‍त करने के लिये उत्‍पन्‍न किया था, उन्‍होंने महात्‍मा भीष्‍म की मूर्तिमान मृत्‍यु के रूप में शिखण्‍डी को सुरक्षित रखा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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