महाभारत आदि पर्व अध्याय 77 श्लोक 1-16

सप्तसप्ततितम (77) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: सप्तसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिये अनुरोध, कच की अस्वीकृति तथा दोनों का एक दूसरे को शाप देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जब कच का व्रत समाप्त हो गया और गुरु ने उन्‍हें जाने की आज्ञा दे दी, तब वे देवलोक को प्रस्थित हुए। उस समय देवयानी ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘महर्षि अंगिरा के पौत्र! आप सदाचार, उत्तम कुल, विद्या, तपस्‍या तथा इन्द्रिय संयम आदि से बड़ी शोभा पा रहे हैं। महायशस्‍वी महर्षि अंगिरा जिस प्रकार मेरे पिता जी के लिये माननीय हैं, उसी प्रकार आपके पिता बृहस्‍पति जी मेरे लिये आदरणीय तथा पूज्‍य हैं। तपोदन! ऐसा जानकर मैं जो कहती हूं, उस पर विचार करें। आप जब व्रत और नियमों के पालन में लगे थे, उन दिनों मैंने आपके साथ जो बर्ताव किया है, उसे आप भूले नहीं होंगे। अब आप व्रत समाप्त करके अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त कर चुके हैं। मैं आपसे प्रेम करती हूं, आप मुझे स्‍वीकार करें; वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक मेरा पाणिग्रहण कीजिये’।

कच ने कहा- 'निर्दोष अंगों वाली देवयानी! जैसे तुम्‍हारे पिता भगवान् शुक्राचार्य मेरे लिये पूजनीय और माननीय हैं, वैसे ही तुम हो; बल्कि उनसे भी बढ़कर मेरी पूजनीया हो। भद्रे! महात्‍मा भार्गव को तुम प्राणों से भी अधिक प्‍यारी हो, गुरुपुत्री होने के कारण धर्म की दृष्टि से सदा मेरी पूजनीया हो। देवयानी! जैसे मेरे गुरुदेव तुम्‍हारे पिता शुक्राचार्य सदा मेरे माननीय हैं, उसी प्रकार तुम हो; अत: तुम्‍हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये।'

देवयानी बोली- 'द्विजोत्तम! आप मेरे पिता के गुरुपुत्र के पुत्र हैं, मेरे पिता के नहीं; अत: मेरे लिये भी आप पूजनीय और माननीय हैं। कच! जब असुर आपको बार-बार मार डालते थे, तब से लेकर आज तक आपके प्रति मेरा जो प्रेम रहा है, उसे आज याद कीजिये। सौहार्द और अनुराग के अवसर पर मेरी उत्तम भक्ति का परिचय आपको मिल चुका है। आप धर्म के ज्ञाता हैं। मैं आपके प्रति भक्ति रखने वाली निरपराध अबला हूँ। आपको मेरा त्‍याग करना उचित नहीं है।'

कच ने कहा- 'उत्तम व्रत का अचारण करने वाली सुन्‍दरी! तुम मुझे ऐसे कार्य में लगा रही हो, जिसमें लगाना कदापि उचित नहीं है। शुभे! तुम मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। तुम मेरे लिये गुरु से भी बढ़कर गुरुतर हो। विशाल नेत्र तथा चन्‍द्रमा के समान मुख वाली भामिनी! शुक्राचार्य के जिस उदर में तुम रह चुकी हो, उसी में मैं भी रहा हूँ। इसलिये भद्रे! धर्म की दृष्टि से तुम मेरी बहिन हो। अत: सुमध्यमे! मुझसे ऐसी बात न कहो। कल्‍याणी! मैं तुम्‍हारे यहाँ बड़े सुख से रहा हूँ। तुम्‍हारे प्रति मेरे मन में तनिक भी रोष नहीं है। अब मैं जाऊंगा, इसलिये तुमसे पूछता हूं, तुम्‍हारी आज्ञा चाहता हूं, आशीर्वाद दो कि मार्ग में मेरा मंगल हो। धर्म की अनुकूलता रखते हुए बातचीत के प्रसंग में कभी मेरा भी स्‍मरण कर लेना और सदा सावधान एवं सजग रहकर मेरे गुरुदेव की सेवा में लगी रहना।'

देवयानी बोली- 'कच! मैंने धर्मानुकूल काम के लिये आपसे प्रार्थना की है। यदि आप मुझे ठुकरा देंगे, तो आपकी यह संजीविनी विद्या सिद्ध नहीं हो सकेगी।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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