पञ्चत्रिंश (35) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्राह्मण जन्म से ही महान भाग्यशाली, समस्त प्राणियों का वन्दनीय, अतिथि और प्रथम भोजन पाने का अधिकारी है। तात! ब्राह्मण सब मनोरथों को सिद्ध करने वाले, सबके सुहृद तथा देवताओं के मुख हैं। वे पूजित होने पर अपनी मंगलयुक्त वाणी से आशीर्वाद देकर मनुष्य के कल्याण का चिन्तन करते हैं। तात! हमारे शत्रुओं के द्वारा पूजित न होने पर उनके प्रति कुपित हुए ब्राह्मण उन सबको अभिशापयुक्त कठोर वाणी द्वारा नष्ट कर डालें। इस विषय में पुराणवेत्ता पुरुष पहले की गायी हुई कुछ गाथाओं का वर्णन करते हैं। प्रजापति ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को पूर्ववत् उत्पन्न करके उनको समझाया, 'तुम लोगों के लिये विधिपूर्वक स्वधर्मपालन और ब्राह्मणों की सेवा के सिवा और कोई कर्तव्य नहीं है। ब्राह्मण की रक्षा की जाये तो वह स्वयं भी अपने रक्षक की रक्षा करता है; अत: ब्राह्मण की सेवा में तुम लोगों का परम कल्याण होगा। ब्राह्मण की रक्षारूप अपने कर्तव्य का पालन करने से ही तुम लोगों को ब्राह्मी लक्ष्मी प्राप्त होगी। तुम सम्पूर्ण भूतों के लिये प्रमाणभूत तथा उनको वश में करने वाले बन जाओगे। विद्वान ब्राह्मण को शूद्रोचित कर्म नहीं करना चाहिये। शूद्र के कर्म करने से उसका धर्म नष्ट हो जाता है। स्वधर्म का पालन करने से लक्ष्मी, बुद्धि, तेज और प्रतापयुक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा स्वाध्याय का अत्यधिक माहात्म्य उपलब्ध होता है। ब्राह्मण आहवनीय अग्नि में स्थित देवतागणों को हवन से तृप्त करके महान सौभाग्यपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होते हैं। वे ब्राह्मी विद्या से उत्तम पात्र बनकर बालकों से भी पहले भोजन पाने के अधिकारी होते हैं। द्विजगण! यदि तुम लोग किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करने के कारण प्राप्त हुई परम श्रद्धा से सम्पन्न हो इन्द्रियसंयम और स्वाध्याय में लगे रहोगे तो सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लोगे। मनुष्य लोक में तथा देवलोक में जो कुछ भी भोग्य वस्तुऐं हैं, वे सब ज्ञान, नियम और तपस्या से प्राप्त होने वाली हैं। आप लोगों के समादर से पवित्र हुए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि प्राणी इहलोक और परलोक में भी प्रीति एवं सम्पत्ति पाते हैं। जो आपके विरोधी हैं, वे आपसे अरक्षित होने के कारण विनाश को प्राप्त होते हैं। आपके तेज से ही ये सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं; अत: आप तीनों लोकों की रक्षा करें।' निष्पाप युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्रह्मा जी की गायी हुई गाथा मैंने तुम्हें बतायी है। उन परम बुद्धिमान विधाता ने ब्राह्मणों पर कृपा करने के लिये ही ऐसा कहा है। मैं ब्राह्मणों का बल तपस्वी राजा के समान बहुत बड़ा मानता हूँ। वे दुर्जय, प्रचण्ड, वेगशाली और शीघ्रकारी होते हैं। ब्राह्मणों में कुछ सिंह के समान शक्तिशाली होते हैं और कुछ व्याघ्र के समान। कितनों की शक्ति वाराह और मृग के समान होती है। कितने ही जल-जन्तुओं के समान होते हैं। किन्हीं का स्पर्श सर्प के समान होता है तो किन्हीं का घड़ियालों के समान। कोई शाप देकर मारते हैं तो कोई क्रोधभरी दृष्टि से ही भस्म कर देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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